गुरुवार, 22 मई 2014

“ईश्वर का निराकार है”

ईश्वर का निराकार है
अन्तरिच्छन्ति तं जने रूद्रं परो मनीषया
गृभ्णन्ति जिव्हाया ससम ऋग्वेद ८।७२।३

अर्थातजो ( मनीषया ) बुद्धि से ( परः ) परे है , ( तं रूद्रं ) उस रूद्र प्रभु को , ज्ञानी मुमुक्ष ( जने अन्तः ) मनुष्य के बीच मे = आत्मा के भीतर ( इच्छन्ति ) चाहते हैं ( इच्छन्ति ) चाहते हैं अर्थात खोजते हैं जैसे ( ससम ) फल को ( जिव्ह्र्या ) जिव्हा से ( गृहन्ति ) ग्रहण करते हैं
अर्थात जैसे कोई पूछे , अमुक फल का स्वाद कैसा होता है, तो उसे दूसरा उत्तर दे , मीठा है मीठा कैसा होता हैपूछने परखाके देख लो , जीभ से पता चल जाएगाकहा जाता है , वैसे ही परमात्मा के निराकार होने से वाणी आदि से उसका वर्णन नहीं किया हो सकता , योगभ्यास आदि साधनों से अपने आत्मा मे उसका साक्षात्कार करना चाहिये
निषसाद धृतव्रतो वरूणः पस्त्या स्वा साम्राज्याय सुक्रतुः ऋग्वेद २५ १०
अर्थात जिस के नियम अटल हैं जिस के ज्ञान और कर्म पवित्र हैं वह वरूण अपनी सारी प्रजाओं पर एकाधिपत्य राज्य करने के लिए सारी प्रजाओं के अन्दर बैठा है


अंधविश्वास से बचने का तीन ही उपाय हो सकते है, या खुद वेदो के अर्थ करना सीखो या फिर आर्ष अर्थात वेदानुकूल हिन्दी साहित्य अध्यन करो या फिर किसी विद्वान से सत्संग करो

कोई टिप्पणी नहीं: