शनिवार, 31 मई 2014

वेदनित्यत्वविषय: "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका",

वेदनित्यत्वविषय:  "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका",

ननु च भो: । शब्दोण्प्युपरतागतो भवति । उच्चारित उपागच्कृति, अनुच्चारितोण्नागतो

भवति, वाव्फ​क्रियावत् । पुनस्तस्य कथं नित्यत्वं भवेत् ।



भाषार्थ -प्रश्न--शब्द भी उच्चारण किये के पश्चात् नष्ट हो जाता है और उच्चारण के पूर्व

सुना नहीं जाता है, जैसे उच्चारण ​क्रिया अनित्य है, वैसे ही शब्द भी अनित्य हो सकता है । फिर

शब्दों को नित्य क्यों मानते हो ?


उत्तर-----शब्द तो आकाश की नाइद्व सर्वत्रा एकरस भर रहे हैं, परन्तु जब उच्चारण​क्रिया नहीं होती,

तब प्रसिद्ध सुनने में नहीं आते । जब प्राण और वाणी की ​क्रिया से उच्चारण किये जाते हैं, तब

शब्द प्रसिद्ध होते हैं । जैसे ‘गौ:’ इसके उच्चारण में जब पर्यन्त उच्चारण ​क्रिया गकार में रहती है,

तब पर्यन्त औकार में नहीं, जब औकार में है तब गकार और विसर्जनीय में नहीं रहती । इसी प्रकार

वाणी की ​क्रिया की उत्पनि और नाश होता है, शब्दों का नहीं । किन्तु आकाश में शब्द की प्राप्ति

होने से शब्द तो अखण्ड एकरस सर्वत्रा भर रहे हैं, परन्तु जब पर्यन्त वायु और वाव्फ इन्द्रिय की ​क्रिया

नहीं होती, तब पर्यन्त शब्दों का उच्चारण और श्रवण भी नहीं होता । इससे यह सिद्ध हुआ कि शब्द

आकाश की नाई नित्य ही हैं । जब व्याकरण शास्त्रा के मत से सब शब्द नित्य होते हैं तो वेदों

के शब्दों की कथा तो क्या ही कहनी है, क्योंकि वेदों के शब्द तो सब प्रकार से नित्य ही बने

रहते हैं ।

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