शब्द नित्य है " ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका "
शब्द नित्य है " ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका "
एवं जैमिनिमुनिना शब्दस्य नित्यत्वं प्रतिपादितम्--- ‘नित्यस्तु स्यापद्दर्शनस्य परार्थत्वात्’।। पूर्वमीमांसा अ॰१। पा॰१ । सू॰१८ ।।
भाषार्थ---इसी प्रकार जैमिनि मुनि ने भी शब्द को नित्य माना है---(नित्यस्तु॰) शब्द में जो
अनित्य होने की शंका आती है, उसका ‘तु’ शब्द से निवारण किया है । शब्द नित्य ही हैं, अर्थात्
नाशरहित हैं, क्योंकि उच्चारणक्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है सो अर्थ के जनाने ही के लिए
है, इससे शब्द अनित्य नहीं हो सकता । जो शब्द का उच्चारण किया जाता है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा
होती है कि श्रोत्राद्वारा ज्ञान के बीच में वही शब्द स्थिर रहता है, फिर उसी शब्द से अर्थ की प्रतीति
होती है जो शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान कौन कराता, क्योंकि वह शब्द ही नहीं रहा, फिर
अर्थ को कौन जनावे । और जैसे अनेक देशों में अनेक पुरुष एक काल में ही एक गो शब्द का
उच्चारण करते हैं, इसी प्रकार उसी शब्द का उच्चारण वारंवार भी होता है, इस कारण से भी शब्द
नित्य है । जो शब्द अनित्य होता तो यह व्यवस्था कभी नहीं बन सकती । सो जैमिनि मुनि ने इस
प्रकार के अनेक हेतुओं से पूर्वमीमांसा शास्त्रा में शब्द को नित्य सिद्ध किया है ।
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