वेद नित्यत्व विचारः
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
ननु गणपाठाष्टामयायीमहाभाष्येष्वपायादयो विधीयन्ते पुनरेतत्कथं सग्च्कृते ? इत्येवं
प्राप्ते ब्रूते महाभाष्यकार:---
‘सर्वे सर्वपदादेशा दाक्षीपुत्रास्य पाणिने: । एकदेशविकारे हि नित्यत्वं नोपपद्यते ।।१।।
‘दाध घ्वदाप्’ इत्यस्य सूत्रास्योपरि महाभाष्यवचनम् । अस्यायमर्थ:---
भाषार्थ -प्रश्न--गणपाठ अष्टामयायी और महाभाष्य में अक्षरों के लोप आगम और विकार
आदि कहे हैं, फिर शब्दों का नित्यत्व कैसे हो सकता है ?
इस प्रश्न का उत्तर महाभाष्यकार पतन्जलि मुनि देते हैं कि---शब्दों के समुदायों के स्थानों में
अन्य शब्दों के समुदायों का प्रयोगमात्रा होता है । जैसे ‘वेदपार गम् ड् सु! भू शप् तिप्’ इस पदसमुदाय
वाक्य के स्थान में ‘वेदपारगोण्भवत्’ इस समुदायान्तर का प्रयोग किया जाता है । इसमें किसी पुरुष
की ऐसी बुद्धिहोती है कि अम् ड् उ! श् प् इ प् इनकी निवृनि हो जाती है, सो उसकी बुद्धिमें
भ्रममात्रा है, क्योंकि शब्दों के समुदाय के स्थानों में दूसरे शब्दों के समुदायों के प्रयोग किये जाते
हैं । सो यह मत दाक्षी के पुत्रा पाणिनि मुनि जी का है, जिनने अष्टामयायी आदि व्याकरण के ग्रन्थ
किये हैं । सो मत इस प्रकार से है कि शब्द नित्य ही होते हैं, तथा ‘कान से सुन के जिनका ग्रहण
होता है, बुद्धिसे जो जाने जाते हैं, जो वाव्फ इन्द्रिय से उच्चारण करने से प्रकाशित होते हैं, और
जिनका निवास का स्थान आकाश है उनको शब्द कहते हैं । क्योंकि जो उच्चारण और श्रवणादि
हम लोगों की क्रिया है उसके क्षणभग् होने से अनित्य गिनी जाती है । इससे शब्द अनित्य नहीं
होते, क्योंकि यह जो हम लोगों की वाणी है, वही वर्ण वर्ण के प्रति अन्य अन्य होती जाती है परन्तु शब्द तो सदा अखण्ड एकरस ही बने रहते हैं ।
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