रविवार, 1 जून 2014

" सत्यार्थ प्रकाश---स्वसिद्धांत "महर्षि दयानन्द सरस्वती "


" सत्यार्थ प्रकाश "महर्षि दयानन्द सरस्वती "

स्वसिद्धांतों का वर्णन संक्षेप से यहां करता हू ---

 

१.---प्रथम ‘र्इश्वर’ कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि
लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वाभाव पवित्र हैं– जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक,अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ना,सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है उसी कोपरमेश्वर मानता हू!।
 
२.---चारों ‘वेदों’ विद्या धर्मयुक्त र्इश्वरप्रणीत संहिता मन्त्राभाग को निर्भ्रान्त
स्वत:प्रमाण मानता हू ! वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिन के प्रमाण होने में किसी
अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं– जैसे सूव्र्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वत:प्रकाशक
और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण,
छ: अग्ं, छ: उपांग्, चार उपवेद और ११२७ (ग्यारह सौ सनार्इसद्ध) वेदों की शाखा
जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्राह्मदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परत:प्रमाण
अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उनका
अप्रमाण करता हू!।
 
३.---जो पक्षपातरहित, न्यायाचरण सत्यभाषणादि युक्त र्इश्वराज्ञा, वेदों से
अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण मिथ्याभाषणादि
र्इश्वराज्ञाभग्, वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ मानता हू!।
 
४.---जो इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी
को ‘जीव’ मानता हू!।
 
५.---जीव और र्इश्वर स्वरूप और वैध्म्र्य से भिन्न और व्याप्यव्यापक और
सावमम्र्य से अभिन्न है अर्थात् जैसे आकाश से मूर्निमान् द्रव्य कभी भिन्न न था,
न है, न होगा और न कभी एक था, न है, न होगा इसी प्रकार परमेश्वर और जीव
को व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध्युक्त मानता हू!।
 
६.---’अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक र्इश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात्
जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण,
कर्म, स्वभाव भी नित्य हैं।
 
७---’प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे
वियोग के पश्चात् नहीं रहते परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामथ्र्य उन
में अनादि है और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीनों को प्रवाह
से अनादि मानता हू!।
 
८.---’सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल
होकर नाना रूप बनना।
 
९.---’सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिस में र्इश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण,
कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये
हैं । उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के र्इश्वर के सामथ्र्य की
सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कमो का यथावत् भोग कराना आदि भी।
 
१०.---’सृष्टि सकर्तृक’ है। इस का कर्ता पूर्वोक्त र्इश्वर है। क्योंकि सृष्टि
की रचना देखने और जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने
का सामथ्र्य न होने से सृष्टि का ‘कर्ता’ अवश्य है।
 
११.---’बन्ध्’ सनिमिनक अर्थात् अविद्या निमिन से है। जो-जो पाप कर्म
र्इश्वरभिन्नोपासना अज्ञानादि सब दु:ख फल करने वाले हैं इसी लिये यह ‘बन्ध्’
है कि जिस की इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।
 
१२.---’मुक्ति’ अर्थात् सर्व दु:खों से छूटकर बन्ध्रहित सर्वव्यापक र्इश्वर
और उस की सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द
को भोग के पुन: संसार में आना।
 
१३.---’मुक्ति के साध्न’ र्इश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान,
ब्रह्मचर्य से विद्या प्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ
आदि हैं।
 
१४---’अर्थ’ वह है कि जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय और जो
अधर्म से सिद्ध होता है उस को ‘अनर्थ’ कहते हैं।
 
१५---’काम’ वह है जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।
 
१६---’वर्णाश्रम’ गुण कमो की योग्यता से मानता हू!।
 
१७---’राजा’ उसी को कहते हैं जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से प्रकाशमान,
पक्षपातरहित न्यायधर्म का सेवी, प्रजाओं में पितृवत् वर्ते और उन को पुत्रवत् मान
के उन की उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।
 
१८---’प्रजा’ उस को कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को
धारण कर के पक्षपातरहित न्याय धर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती
हुर्इ राज​विद्रोहरहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्ते।
 
१९.---जो सदा विचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे,
अन्यायकारियों को हठावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब
का सुख चाहे सो ‘न्यायकारी’ है उस को मैं भी ठीक मानता हू!।
 
२०.---’देव’ विद्वानों को और अविद्वानों को ‘असुर’ पापियों को ‘राक्षस’
अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हू!।
 
२१.---उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचाव्र्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और
धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती
है। इस से विपरीत अदेवपूजा, इन की मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़
मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समभफता हू।
 
२२.---’शिक्षा’ जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती
होवे और अविद्यादि दोष छूटें उस को शिक्षा कहते हैं।
 
२३.---’पुराण’ जो ब्राह्मदि के बनाये ऐतरेयादि ब्राह्मण पुस्तक हैं उन्हीं को
पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हू! अन्य भागवतादि
को नहीं।
 
२४.---’तीर्थ’ जिस से दु:खसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या,
सत्संग, यमादि, योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता
हू! इतर जलस्थलादि को नहीं।
 
२५.---’पुरुषार्थ प्रारब्ध् से बड़ा’ इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध्
बनते जिस के सुध्रने से सब सुध्रते और जिस के बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं
इसी से प्रारब्ध् की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।
 
२६.---’मनुष्य’ को सब से यथायोग्य स्वात्मवत् सुख, दु:ख, हानि, लाभ
में वर्त्तना श्रेष्ठऋ अन्यथा वर्त्तना बुरा समभफता हू!।
 
२७.---’संस्कार’ उनको कहते हैं कि जिस से शरीर, मन और आत्मा उनम
होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इस को कर्त्तव्य समभफता हू!
और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।
 
२८.---’यज्ञ’ उस को कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार यथायोग्य
शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या उस से उपयोग और विद्यादि शुभगुणों
का दान, अग्निहोत्रदि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधिकी पवित्रता करके
सब जीवों को सुख पहु!चाना है उस को उनम समभफता हू!।
 
२९.---जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही
मैं भी मानता हू!।
 
३०.---’आर्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि इस में आदि
सृष्टि से आव्र्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय,
दक्षिण में विन्मयाचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है। इन चारों
के बीच में जितना प्रदेश है उस को ‘आव्र्यावर्त्त’ कहते और जो इस में सदा रहते
हैं उन को भी आर्य कहते हैं।
 
३१.---जो सांगोपांग वेदविद्याओं का अमयापक सत्याचार का ग्रहण और
मिथ्याचार का त्याग करावे वह ‘आचार्य’ कहाता है।
 
३२.---’शिष्य’ उस को कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण
करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचाव्र्य का प्रिय करने वाला है।
 
३३---’गुरु’ माता पिता और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को
छुड़ावे वह भी ‘गुरु’ कहाता है।
 
३४---’पुरोहित’ जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष्टा होवे।
 
३५.---’उपाध्याय’ जो वेदों का एकदेश वा अन्गो को पढ़ाता हो।
 
३६.---’शिष्टाचार’ जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर प्रत्यक्षादि
प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण असत्य का परित्याग करना
है यही शिष्टाचार और जो इस को करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।
 
३७.---प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हू!।
 
३८---’आप्त’ जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सब के सुख के लिये प्रयत्न करता
है उसी को आप्त कहता हू।
 
३९.---’परीक्षा’ पांच प्रकार की है। इस में से प्रथम जो र्इश्वर उस के
गुण, कर्म, स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टि-
क्रम, चौथी आप्तों का व्यवहार और पांचवीं अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या,
इन पांच परीक्षाओं से सत्याण्सत्य का निर्णय कर के सत्य का ग्रहण असत्य का
परित्याग करना चाहिये।
 
४०.---’परोपकार’ जिस से सब मनुष्यों के दुराचार दु:ख छूटें, श्रेष्ठाचार
और सुख बढ़े उस के करने को परोपकार कहता हू।
 
४१.---’स्वतन्त्रा’ ‘परतन्त्रा’ जीव अपने कामों में स्वतन्त्रा और कर्मफल भोगने
में र्इश्वर की व्यवस्था से परतन्त्रा वैसे ही र्इश्वर अपने सत्याचार आदि काम करने
में स्वतन्त्रा है।
 
४२.---’स्वर्ग’ नाम सुख विशेष भोग और उस की सामग्री की प्राप्ति का है।
 
४३.---’नरक’ जो दु:ख विशेष भोग और उस की साम्रगी को प्राप्त होना है।
 
४४.---’जन्म’ जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और ममय भेद
से तीनों प्रकार का मानता हू!।
 
४५.---शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते
हैं।
 
४६.---’विवाह’ जो नियमपूर्वक प्रसिद्धिसे अपनी इच्छा कर के पाणिग्रहण
करना वह ‘विवाह’ कहाता है।
 
४७.---’नियोग’ विवाह के पश्चात् पति वा पत्नी के मर जाने आदि वियोग
में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा पुरुष आपत्काल में स्ववर्ण वा अपने
से उनम वर्णस्थ स्त्री वा पुरुष के साथ सन्तानोत्पति करना।
 
४८.---’स्तुति’ गुणकीर्त्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि
होते हैं।
 
४९.---’प्रार्थना’ अपने सामथ्र्य के उपरान्त र्इश्वर के सम्बन्ध् से जो विज्ञान
आदि प्राप्त होते हैं उन के लिये र्इश्वर से याचना करना और इस का फल निरभिमान
आदि होता है।
 
५०.---’उपासना’ जैसे र्इश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने
करना, र्इश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के र्इश्वर के समीप हम और
हमारे समीप र्इश्वर है ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना उपासना कहाती
है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।
 
५१.---’सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’ जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन
से युक्त और जो जो गुण नहीं हैं उन से पृथक् मान कर प्रशंसा करना सगुणनिर्गुण
स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की र्इश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा
का सहाय चाहना सगुणनिर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित
परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उस के और उस की आज्ञा के अर्पण
कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।
 
ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी
‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है तथा प्ग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि
ग्रन्थों में भी लिखी है अर्थात् जो-जो बात सब के सामने माननीय है उस को मानता
अर्थात् जैसे सत्य बोलना सब के सामने अच्छा और मिथ्या बोलना बुरा है ऐसे
सिद्धन्तों को स्वीकार करता हू!।
और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं उन को मैं प्रसन्न नहीं
करता क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसा के
परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सब को ऐक्यमत
में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ
पहुचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।
सर्वशक्तिमान् परमात्मा की छपा सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से
‘यह सिणन्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृन हो जावे’ जिस से सब लोग सहज
से धर्मार्थ काम, मोक्ष की सिद्धिकरके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही
मेरा मुख्य प्रयोजन है ॥

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