मंगलवार, 20 मई 2014

दैनिक यज्ञ ||अथ अग्निहोत्रमंत्र:|| ( सम्पूर्ण )


दैनिक यज्ञ ||अथ अग्निहोत्रमंत्र:|| ( सम्पूर्ण )

अनुक्रम

जल से आचमनकरने के मंत्र

इससे पहला



ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।१।

इससे दूसरा



ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।२।

इससे तीसरा



ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयिश्री: श्रयतां स्वाहा।३।



मंत्रार्थ– हे सर्वरक्षक अमरपरमेश्वर! यह सुखप्रदजल प्राणियों काआश्रयभूत है, यहहमारा कथन शुभहो। यह मैंसत्यनिष्ठापूर्वक मानकर कहता हूँऔर सुष्ठूक्रिया आचमनके सदृश आपकोअपने अंत:करणमें ग्रहण करताहूँ।।1।।



हे सर्वरक्षक अविनाशिस्वरूप, अजरपरमेश्वर! आप हमारेआच्छादक वस्त्र के समानअर्थात सदा-सर्वदासब और सेरक्षक हों, यहसत्यवचन मैं सत्यनिष्ठापूर्वकमानकर कहता हूँऔर सुष्ठूक्रिया आचमनके सदृश आपकोअपने अंत:करणमें ग्रहण करताहूँ।।2।।






हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण, यश एवं प्रतिष्ठा. विजयलक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझमे स्थितहों, यह मैंसत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँऔर सुष्ठूक्रिया आचमनके सदृश आपकोअपने अंत:करणमें ग्रहण करताहूँ।।3।।



जल से अंगस्पर्श करने केमंत्र



इसका प्रयोजन है-शरीरके सभी महत्त्वपूर्णअंगों में पवित्रताका समावेश तथाअंतः की चेतनाको जगाना ताकियज्ञ जैसा श्रेष्ठकृत्य किया जासके । बाएँहाथ की हथेलीमें जल लेकरदाहिने हाथ कीउँगलियों को उनमेंभिगोकर बताए गएस्थान को मंत्रोच्चारके साथ स्पर्शकरें ।



इस मंत्र से मुखका स्पर्श करें




ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु ॥

इस मंत्र से नासिकाके दोनों भाग

ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ॥

इससे दोनों आँखें



ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ॥

इससे दोनों कान



ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥

इससे दोनों भुजाऐं

ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥

इससे दोनों जंघाएं

ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ॥

इससे सारे शरीरपर जल कामार्जन करें

ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वामे सह सन्तु॥

मंत्रार्थ– हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थनाकरता हूँ किमेरे मुख मेंवाक् इन्द्रिय पूर्णआयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरेदोनों नासिका भागोंमें प्राणशक्ति पूर्णआयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहितविद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरेदोनों आखों मेंदृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्यएवं सामर्थ्यसहित विद्यमानरहे।

हे रक्षक परमेश्वर! मेरेदोनों कानों मेंसुनने की शक्तिपूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्यएवं सामर्थ्यसहित विद्यमानरहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरीभुजाओं में पूर्णआयुपर्यन्त बल विद्यमानरहे।

हे रक्षक परमेश्वर! मेरीजंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्यपूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमानरहे।

हे रक्षक परमेश्वर! मेराशरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवंदोष रहित बनेरहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीरके साथ सम्यक्प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्यसहित विद्यमान रहें।



ईश्वर की स्तुति- प्रार्थना – उपासना के मंत्र
 

ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानिपरासुव ।
यद् भद्रं तन्न आसुव ॥१॥




मंत्रार्थ– हे सब सुखोंके दाता ज्ञानके प्रकाशक सकलजगत के उत्पत्तिकर्ताएवं समग्र ऐश्वर्ययुक्तपरमेश्वर! आप हमारेसम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों औरदुखों को दूरकर दीजिए, औरजो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुखऔर पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांतिप्राप्त कराइये।






हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेकआसीत् ।स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमांकस्मै देवाय हविषाविधेम ॥२॥
मंत्रार्थ– सृष्टि के उत्पन्नहोने से पूर्वऔर सृष्टि रचनाके आरम्भ मेंस्वप्रकाशस्वरूप और जिसनेप्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदिपदार्थों को उत्पन्नकरके अपने अन्दरधारण कर रखाहै, वह परमात्मासम्यक् रूप सेवर्तमान था। वहीउत्पन्न हुए सम्पूर्णजगत का प्रसिद्धस्वामी केवल अकेलाएक ही था।उसी परमात्मा नेइस पृथ्वीलोक औरद्युलोक आदि कोधारण किया हुआहै, हम लोगउस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्तपरमात्मा की प्राप्तिके लिये ग्रहणकरने योग्य योगाभ्यासव हव्य पदार्थोंद्वारा विशेष भक्ति करतेहैं।






य आत्मदा बलदा यस्यविश्व उपासते प्रशिषंयस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥३॥
मंत्रार्थ– जो परमात्मा आत्मज्ञानका दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिकबल का देनेवाला है, जिसकीसब विद्वान लोगउपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभीमानते हैं, जिसकाआश्रय ही मोक्षसुखदायकहै, और जिसकोन मानना अर्थातभक्ति न करनामृत्यु आदि कष्टका हेतु है, हम लोग उससुखस्वरूप एवं प्रजापालकशुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्तपरमात्मा की प्राप्तिके लिये ग्रहणकरने योग्य योगाभ्यासव हव्य पदार्थोंद्वारा विशेष भक्ति करतेहैं।






य: प्राणतो निमिषतो महित्वैकइन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्यद्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥४॥

मंत्रार्थ– जो प्राणधारी चेतनऔर अप्राणधारी जडजगत का अपनीअनंत महिमा केकारण एक अकेलाही सर्वोपरी विराजमानराजा हुआ है, जो इस दोपैरों वाले मनुष्यआदि और चारपैरों वाले पशुआदि प्राणियों कीरचना करता हैऔर उनका सर्वोपरीस्वामी है, हमलोग उस सुखस्वरूपएवं प्रजापालक शुद्धएवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्तपरमात्मा की प्रप्तिके लिये योगाभ्यासएवं हव्य पदार्थोंद्वारा विशेष भक्ति करतेहैं ।


येन द्यौरुग्रा पृथिवी चदृढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥५॥

मंत्रार्थजिस परमात्मा नेतेजोमय द्युलोक में स्थितसूर्य आदि कोऔर पृथिवी कोधारण कर रखाहै, जिसने समस्तसुखों को धारणकर रखा है, जिसने मोक्ष कोधारण कर रखाहै, जो अंतरिक्षमें स्थित समस्तलोक-लोकान्तरों आदिका विशेष नियमसे निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ताहै, हम लोगउस शुद्ध एवंप्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्तिके लिये ग्रहणकरने योग्य योगाभ्यासएवं हव्य पदार्थोंद्वारा विशेष भक्ति करतेहैं

प्रजापते न त्वदेतान्यन्योविश्वा जातानि परिता बभूव।
यत्कामास्तेजुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्यामपतयो रयीणाम् ॥६॥


मंत्रार्थ– हे सब प्रजाओंके पालक स्वामीपरमत्मन! आपसे भिन्नदूसरा कोई उनऔर इन अर्थातदूर और पासस्थित समस्त उत्पन्नहुए जड-चेतनपदार्थों को वशीभूतनहीं कर सकता, केवल आप हीइस जगत कोवशीभूत रखने मेंसमर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थकी कामना वालेहम लोग अपकीयोगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थोंसे स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थकी हमारी कामनासिद्ध होवे, जिससेकी हम उपासकलोग धन-ऐश्वर्योंके स्वामी होवें।

स नो बन्धुर्जनितास विधाता धामानिवेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥७॥


मंत्रार्थ– वह परमात्मा हमाराभाई और सम्बन्धीके समान सहायकहै, सकल जगतका उत्पादक है, वही सब कामोंको पूर्ण करनेवाला है। वहसमस्त लोक-लोकान्तरोंको, स्थान-स्थानको जानता है।यह वही परमात्माहै जिसके आश्रयमें योगीजन मोक्षको प्राप्त करतेहुए, मोक्षानन्द कासेवन करते हुएतीसरे धाम अर्थातपरब्रह्म परमात्मा के आश्रयसे प्राप्त मोक्षानन्दमें स्वेच्छापूर्वक विचरणकरते हैं। उसीपरमात्मा की हमभक्ति करते हैं।

अग्ने नय सुपथाराये अस्मान् विश्वानिदेव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनोभूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम ॥८॥

मंत्रार्थ– हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक, दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदिकी प्राप्ति करानेके लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी मार्ग से लेचल। आप समस्तज्ञानों और कर्मोंको जानने वालेहैं। हमसे कुटिलतायुक्तपापरूप कर्म कोदूर कीजिये ।इस हेतु सेहम आपकी विविधप्रकार की औरअधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासनासत्कार व नम्रतापूर्वककरते हैं।




दीपक जलाने का मंत्र
ॐ भूर्भुव: स्व: ॥

मंत्रार्थहे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब केउत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों कोदूर करने वालेसुखस्वरूप एवं सुखदाताहैं। आपकी कृपासे मेरा यहअनुष्ठान सफल होवे।अथवा हे ईश्वरआप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकीकृपा से यहयज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोकमें विस्तीर्ण होकरलोकोपकारक सिद्ध होवे।

यज्ञ कुण्ड में अग्निस्थापित करने का मंत्र



ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्नापृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥

मंत्रार्थ– हे सर्वरक्षक सबकेउत्पादक और प्राणाधारदुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदातापरमेश्वर! आपकी कृपासे मैं महत्ताया गरिमा मेंद्युलोक के समान, श्रेष्ठता या विस्तारमें पृथिवी लोकके समान होजाऊं । देवयज्ञकी आधारभूमि पृथिवी! के तल परहव्य द्रव्यों काभक्षण करने वालीयज्ञीय अग्नि को, भक्षणीयअन्न एवं धर्मानुकूलभोगों की प्राप्तिके लिए तथाभक्षण सामर्थ्य औरभोग सामर्थ्य प्राप्तिके लिए यज्ञकुण्डमें स्थापित करताहूँ ।



अग्नि प्रदीप्त करने कामंत्र






ॐ उद् बुध्यस्वाग्नेप्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयंच ।
अस्मिन्त्सधस्थेअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत ॥

मंत्रार्थ– मैं सर्वरक्षक परमेश्वरका स्मरण करताहुअ यहाँ कामनाकरता हूँ किहे यज्ञाग्ने ! तूभलीभांति उद्दीप्त हो, औरप्रत्येक समिधा को प्रज्वलितकरती हुई पर्याप्तज्वालामयी हो जा।तू और यहयजमान इष्ट औरपूर्त्त कर्मों को मिल्करसम्पादित करें। इस अतिउत्कृष्ट, भव्य औरअत्युच्च यज्ञशाला में सबविद्वान और यज्ञकर्त्ताजन मिलकर बैठें।




घृत की तीनसमिधायें रखने केमंत्र






इस मंत्र से प्रथमसमिधा रखें।






ॐ अयन्त इध्म आत्माजातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान्प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन






समेधय स्वाहा । इदमग्नेयजातवेदसे – इदं नमम ॥१॥






मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वरका स्मरण करताहुआ कामना करताहूँ कि हेसब उत्पन्न पदार्थोंके प्रकाशक अग्नि! यह समिधा तेरेजीवन का हेतुहै ज्वलित रहनेका आधार है।उससमिधा से तूप्रदीप्त हो, सबकोप्रकाशित कर औरसब को यज्ञीयलाभों से लाभान्वितकर, और हमेंसंतान से, पशुसम्पित्त से बढ़ा।ब्रह्मतेज( विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिकतेज से, औरअन्नादि धन-ऐश्वयर्तथा भक्षण एवंभोग- सामथ्यर् सेसमृद्ध कर। मैंत्यागभाव से यहसमिधा- हवि प्रदानकरना चाहता हूँ| यह आहुति जातवेदससंज्ञक अग्नि के लिएहै, यह मेरीनही है ||1||






इन दो मन्त्रोंसे दूसरी समिधारखें
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम्|
आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा|
इदमग्नये इदन्न मम ||२||

मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वरका स्मरण करतेहुए वेद केआदेश का कथनकरता हूँ किहे मनुष्यो! समिधाके द्वारा यज्ञाग्निकी सेवा करो-भक्ति से यज्ञकरो।घृताहुतियों से गतिशीलएवं अतिथ केसमान प्रथम सत्करणीययज्ञाग्नि को प्रबुद्धकरो, इसमें हव्योंको भलीभांति अपिर्तकरो।मैं त्यागभाव से यहसमिधा- हवि प्रदानकरना चाहता हूँ।यह आहुति यज्ञाग्निके लिए है, यह मेरी नहींहै ||२||



सुसमिद्धायशोचिषे घृतं तीव्रंजुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा।
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम||३||
मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वरके स्मरणपूर्वक वेदके आदेश काकथन करता हूँकि हे मनुष्यों! अच्छी प्रकार प्रदीप्तज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्निके लिए वस्तुमात्रमें व्याप्त एवंउनकी प्रकाशक अग्निके लिए उत्कृष्टघृत की आहुतियाँदो . मैं त्यागभाव से समिधाकी आहुति प्रदानकरता हूँ यहआहुति जातवेदस् संज्ञकमाध्यमिक अग्नि के लिएहै यह मेरीनहीं।।३।। इस मन्त्रसे तीसरी समिधारखें।



तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा।।इदमग्नेऽङिगरसे इदंन मम।।४।।

मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वरका स्मरण करतेहुए यह कथनकरता हूँ किहे तीव्र प्रज्वलितयज्ञाग्नि! तुझे हमसमिधायों से औरधृताहुतियों से बढ़ातेहैं।हे पदार्थों को मिलानेऔर पृथक करनेकी महान शक्तिसे सम्पन्न अग्नि! तू बहुत अधिकप्रदीप्त हो, मैंत्यागभाव से समिधाकी आहुति प्रदानकरता हूँ ।यहअंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्निके लिए हैयह मेरी नहींहै।



नीचे लिखे मन्त्रसे घृत की पांच आहुति देवें

ओम् अयं तइध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्ववद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान्प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा।इदमग्नये जातवेदसे - इदं नमम।।१।।
मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वरका स्मरण करताहुआ कामना करताहूँ कि हेसब उत्पन्न पदार्थोंके प्रकाशक अग्नि! यह धृत जोजीवन का हेतुहै ज्वलित रहनेका आधार है।उसधृत से तूप्रदीप्त हो औरज्वालाओं से बढ़तथा सबको प्रकाशितकर = सब कोयज्ञीय लाभों से लाभान्वितकर और हमेंसंतान से, पशुसम्पित्त से बढ़ा।विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिकतेज से, औरअन्नादि धन ऐश्वर्यतथा भक्षण एवंभोग सामर्थ्य सेसमृद्ध कर। मैंत्यागभाव से यहधृत प्रदान करताहूँ ।यह आहुतिजातवेदस संज्ञक अग्नि केलिए है, यहमेरी नहीं है| ||१||

जल - प्रसेचन के मन्त्र
इस मन्त्र से पूर्वमें
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व।।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक अखण्डपरमेश्वर! मेरे इसयज्ञकर्म का अनुमोदनकर अर्थात मेरायह यज्ञानुष्ठान अखिण्डतरूप से सम्पन्नहोता रहे।अथवा, पूर्वदिशा में, जलसिञ्चनके सदृश, मैंयज्ञीय पवित्र भावनाओं काप्रचार प्रसार निबार्ध रूपसे कर सकूँ, इस कार्य मेंमेरी सहायता कीजिये।



इससे पश्चिम में
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व।।



मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक यज्ञीयएवं ईश्वरीय संस्कारोंके अनुकूल बुद्धिबनाने में समर्थपरमात्मन! मेरे इसयज्ञकर्म का अनुकूलतासे अनुमोदन करअर्थात यह यज्ञनुष्ठानआप की कृपासे सम्पन्न होतारहे।अथवा, पश्चिम दिशा मेंजल सिञ्चन केसदृश मैं यज्ञीयपवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपासे कर सकूं, इस कार्य मेंमेरी सहायता कीजिये।

इससे उत्तर में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।।
मन्त्रार्थ-हे सर्वरक्षकप्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदातापरमेश्वर! मेरे इसयज्ञकर्म का अनुमोदनकर अर्थात आपद्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्विसे मेरा यहयज्ञनुष्ठान सम्यक विधि सेसम्पन्न होता रहे।अथवा, उत्तर दिशा मेंजलसिञ्चन के सदृशमैं यज्ञीय ज्ञानका प्रचार-प्रसारआपकी कृपा सेकरता रहूँ, इसकार्य में मेरीसहायता कीजिये।
और - इस मन्त्रसे वेदी केचारों और जलछिड़कावें।
 

ओं देव सवितःप्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिंभगाय।दिव्यो
गन्धर्वः केतपूः केतं नःपुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।।


मन्त्रार्थ-- हे सर्वरक्षक दिव्यगुणशक्ति सम्पन्न सबजगत के उत्पादकपरमेश्वर! मेरे इसयज्ञ कर्म कोबढाओ । आनन्द, ऐश्वर्य आदि कीप्राप्ति के लिएयाग्यकर्त्ता को यज्ञकर्मकी अभिवृद्धि केलिए और अधिकप्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञानके प्रकाशक हैंपवित्र वेदवाणी अथवा पवित्रज्ञान के आश्रयहैं, ज्ञान-विज्ञानसे बुद्धि मनको पवित्र करनेवाले हैं, अतःहमारे बुद्धि-मनको पवित्र कीजिये।आपवाणी के स्वामीहैं, अतः हमारीवाणी को मधुरबनाइये। अथवा, चारों दिशायोंमें जल सिञ्चनके सदृश मैंयज्ञीय पवित्र भावनाओं काप्रचार-प्रसार कर सकूँ, इस कार्य केलिए मुझे उत्तमज्ञान, पवित्र आचरण औरमधुर-प्रशस्त वाणीमें समर्थ बनाइये।


चार घी कीआहुतियाँ
इस मन्त्र से वेदीके उत्तर भागमें जलती हुईसमिधा पर आहुतिदेवें।
 

ओम् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये- इदं न मम।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक प्रकाशस्वरूप दोषनाशक परमात्मा केलिए मैं त्यागभावनासे धृत कीहवि देता हूँ।यहआहुति अग्निस्वरूप परमात्माके लिए है, यह मेरी नहींहै।अथवा, यज्ञाग्नि के लिएयह आहुति प्रदानकरता हूँ।



इस मन्त्र से वेदीके दक्षिण भागमें जलती हुईसमिधा पर आहुतिदेवें।


ओम् सोमाय स्वाहा | इदंसोमाय - इदं नमम।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, शांति -सुख-स्वरूपऔर इनके दातापरमात्मा के लिएत्यागभावना से धृतकी आहुति देताहूँ ।अथवा, आनन्दप्रदचन्द्रमा के लिएयह आहुति प्रदानकरता हूँ।

इन दो मन्त्रोंसे यज्ञ कुण्डके मध्य मेंदो आहुति देवें।
 
ओम् प्रजापतये स्वाहा | इदंप्रजापतये - इदं नमम।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक प्रजा अर्थात सबजगत के पालक, स्वामी, परमात्मा के लिएमैं त्यागभाव सेयह आहुति देताहूँ।अथवा, प्रजापति सूर्य केलिए यह आहुतिप्रदान करता हूँ

ओम् इन्द्राय स्वाहा | इदंइन्द्राय - इदं नमम।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक परमऐश्वर्य-सम्पन्न तथाउसके दाता परमेश्वरके लिए मैंयह आहुति प्रदानकरता हूँ।अथवा ऐश्वयर्शाली, शक्तिशाली वायु वविद्युत के लिएयह आहुति प्रदानकरता हूँ।
 
दैनिक अग्निहोत्र की प्रधानआहुतियां - प्रातः कालीन आहुतिके मन्त्र
इन मन्त्रों से घृतके साथ साथ सामग्री आदि अन्यहोम द्रव्यों कीभी आहुतियां दें।
 

ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।
 

ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।
 

ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योतिस्वाहा।।३।।
 

ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यताजुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वगतिशील सबका प्रेरकपरमात्मा प्रकाशस्वरूप है औरप्रत्येक प्रकाशस्वरूप वस्तु या ज्योतिपरमात्ममय = परमेश्वर से व्याप्तहै।उस परमेश्वर अथवाज्योतिष्मान उदयकालीन सूर्य केलिए मैं यहआहुति देता हूं।।१।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वगतिशील और सबकाप्रेरक परमात्मा तेजस्वरूप है, जैसे प्रकाश तेजस्वरूपहोता है, उसपरमात्मा अथवा तेजःस्वरूपप्रातःकालीन सूर्य के लिएमैं यह आहुतिदेता हूं।।२।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, ब्रह्मज्योति =ब्रह्मज्ञान परमात्ममय हैपरमात्मा की द्योतकहै परमात्मा हीज्ञान का प्रकाशकहै।मैं ऐसे परमात्माअथवा सबके प्रकाशकसूर्य के लिएयह आहुति प्रदानकरता हूं।।३।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वव्यापक, सर्वत्रगतिशील परमात्मासर्वोत्पादक, प्रकाश एवं प्रकाशकसूर्य से प्रीतिरखने वाला, तथाऐश्वयर्शाली = प्रसन्न्ता, शक्ति तथाधनैश्वर्य देने वालीप्राणमयी उषा सेप्रीति रखनेवाला है अर्थातप्रीतिपूर्वक उनको उत्पन्नकर प्रकाशित करनेवाला है, हमारेद्वारा स्तुति किया हुआवह परमात्मा हमेंप्राप्त हो = हमारीआत्मा में प्रकाशितहो।उस परमात्मा कीप्राप्ति के लिएमैं यज्ञाग्नि मेंआहुति प्रदान करताहूं।अथवा सबके प्रेरकऔर उत्पादक परमात्मासे संयुक्त औरप्रसन्नता, शक्ति, ऐश्वयर्युक्त उषासे संयुक्त प्रातःकालीनसूर्य हमारे द्वाराआहुतिदान का सम्यक्प्रकार भक्षण करे औरउनको वातावरण मेंव्याप्त कर दे, जिससे यज्ञ काअधिकाधिक लाभ हो।।४।।

प्रातः कालीन आहुति केशेष समान मन्त्र
 
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नयेप्राणाय - इदं नमम।।१।।
 

ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय -इदंन मम।।२।।
 

ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम।।३।।
 

ओम् भूभुर्वः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यःप्राणापानव्यानेभ्यः - इदं नमम।।४।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सबके उत्पादकएवं सतस्वरूप, सर्वत्रव्यापक, प्राणस्वरूप परमात्मा कीप्राप्ति के लिएमैं यह आहुतिदेता हूं।यह आहुतिअग्नि और प्राणसंज्ञकपरमात्मा के लिएहै।यह मेरी नहीहै।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक, पृथिवीस्थानीय अग्नि के लिएऔर प्राणवायु कीशुद्धि के लिएमैं यह आहुतिप्रदान करता हूँ।।१।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सब दुखोंसे छुड़ाने वालेऔर चित्तस्वरूप सर्वत्रगतिशील दोषों को दूरकरने वाले परमात्माकी प्राप्ति केलिए मैं आहुतिप्रदान करता हूँ।यहआहुति वायु औरअपान संज्ञक परमात्माके लिए है।यहमेरी नहीं है।अथवापरमेश्वर के स्मरणपूर्वकअन्तिरक्षस्थानीय वायु केलिए और अपानवायु की शुद्धिके लिए मैंयह आहुति प्रदानकरता हूँ।।२।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सुखस्वरूप एवं आनन्दस्वरूपअखण्ड और प्रकाशस्वरूपसर्वत्र व्याप्त परमात्मा कीप्राप्ति के लिएमैं यह आहुतिप्रदान करता हूँ।यहआहुति आदित्य औरव्यान संज्ञक परमात्माके लिए है।यहमेरी नहीं है।अथवासर्वरक्षक परमात्मा के स्मरणपूवर्क, द्युलोकस्थानीय सूर्य के लिएऔर व्यान वायुकी शुद्धि केलिए यह आहुतिप्रदान करता हूँ।यहआहुति आदित्य औरव्यान वायु केलिए है, यहमेरी नही है।।३।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सबके उत्पादकएवं सतस्वरूप दुखोंको दूर करनेवाले एवं चित्तस्वरूपसुख-आनन्द स्वरूपसर्वत्र व्याप्त गतिशील प्रकाशक, सबके प्राणाधार, दोषनिवारकव्यापक स्वरूपों वाले परमात्माके लिए मैंयह आहुति पुनःप्रदान करता हूं।यह आहुति उक्तसंज्ञकपरमात्मा के लिएहै , मेरी नहींहै।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूवर्क, पृथिवीअन्तिरक्षद्युलोकस्थानीयअग्नि वायु औरआदित्य के लिएतथा प्राण, अपानऔर व्यान संज्ञकप्राणवायुओं की शुद्धिके लिए मैंयह आहुति पुनःप्रदान करता हूं।।४।।


ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतंब्रह्म भूभुर्वः स्वरों स्वाहा।।५।।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वरआप सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशस्वरूपएवं प्रकाशक, उपासकोंद्वारा रसनीय, आस्वादनीय, आनन्दहेतु उपासनीय, नाशरिहत, अखण्ड, अजरअमर, सबसे महान, प्राणाधार और सतस्वरूप, दुखों को दूरकरने वाले औरचितस्वरूप, सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाताऔर आनन्दस्वरूप, सबकेरक्षा करनेवाले हैं।येसब आपके नामहैं, इन नामोंवाले आप परमेश्वरकी प्राप्ति केलिए मैं आहुतिप्रदान करता हूँ।।

ओम् यां मेधांदेवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनंकुरू स्वाहा।।६।।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक ज्ञानस्वरूपपरमेश्वर ! जिस धारणावती= ज्ञान, गुण, उत्तमविचार आदि कोधारण करने वालीबुद्धि की दिव्यगुणों वाले विद्वानऔर पालक जनमाता-पिता आदिज्ञानवृद्ध और वयोवृद्धजन उपासना करतेहैं अर्थात चाहतेहैं और उसकीप्राप्ति के लियेयत्नशील रहते हैंउस मेधा बुद्धिसे मुझे आजमेधा बुद्धि वालाबनाओ।इस प्रार्थना के साथमैं यह आहुतिप्रदान करता हूँ।।

ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानिपरासुव।यद भद्रं तन्न आसुव स्वाहा ।।७।।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक दिव्यगुणशक्तिसम्पन्न, सबके उत्पादक औरप्रेरक परमात्मन्! आप कृपाकरके हमारे सबदुगुर्ण, दुव्यर्सन और दुखोंको दूर कीजिएऔर जो कल्याणकारकगुण, कर्म, स्वभावहैं उनको हमेंभलीभांति प्राप्त कराइये।।
 
अग्ने नय सुपथाराय अस्मान विश्वानिदेव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनोभूयिष्ठां ते नमउक्ति विधेम स्वाहा।।८।।


मन्त्रार्थ- हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शकदिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मन् ! हमको ज्ञानविज्ञान, ऐश्वर्य आदि कीप्राप्ति के लिएधमर्युक्त कल्याणकारी मार्ग सेले चल। आपसमस्त ज्ञानविज्ञानों औरकर्मों को जाननेवाले हैं हमसेकुटिलतायुक्त पापरूप कर्म कोदूर कीजिये। इसहेतु से हमआपकी विविध प्रकारकी और अधिकाधिकस्तुतिप्रार्थनाउपासना, सत्कार नम्रतापूर्वक करतेहैं।
 
सायं कालीन आहुति केमन्त्र

ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।१।।
 
ओम् अग्निवर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।

इस तीसरे मन्त्र कोमन मे उच्चारणकरके आहुति देवें
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।३।।
 
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजुरात्र्येन्द्रवत्याजुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।।४।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारकपरमात्मा ज्योतिस्वरूप = प्रकाशस्वरूप है, औरप्रत्येक ज्योति या ज्योतियुक्तपदार्थ अग्निसंज्ञक परमात्मा सेव्याप्त है। मैंउस परमात्मा कीप्राप्ति के लिएअथवा ज्योतिःस्वरूप अग्निके लिए आहुतिप्रदान करता हूँ।।१।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारकपरमात्मा तेजस्वरूप है, जैसेप्रत्येक प्रकाशयुक्त वस्तु याप्रकाश तेजस्वरूप होता है, मैं उस परमात्माकी प्राप्ति केलिए अथवा तेजःस्वरूपअग्नि के लिएआहुति प्रदान करताहूँ।।२।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारकपरमात्मा ब्रह्मज्योति और ज्ञानविज्ञानस्वरूपहै ब्रह्मज्योति औरज्ञानविज्ञान अग्निसंज्ञक परमात्मा सेउत्पन्न अथवा उसकाद्योतक है मैंउस परमात्मा कीप्राप्ति हेतु औरसबको प्रकाशित करनेवाले अग्नि केलिए आहुति प्रदानकरता हूँ।।३।।

मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक, प्रकाशस्वरूप परमात्मा प्रकाशस्वरूप एवंप्रकाशक सूर्य से प्रीतिरखने वाला तथाप्राणमयी एवं चंद्रतारकप्रकाशमयी रात्रि से प्रीतिरखने वाला हैअर्थांत प्रीतिपूवर्क उनको उत्पन्नकर, प्रकाशित करनेवाला है, हमारेद्वारा स्तुति किया जाताहुआ वह परमात्माहमें प्राप्त हो- हमारी आत्मा मेंप्रकाशित हो। उसपरमात्मा की प्राप्तिके लिए मैंयज्ञाग्नि में आहुतिप्रदान करता हूँ।।

अधिदैवत पक्ष मे- सबके प्रकाशक सूर्य सेऔर सबके प्रेरकऔर उत्पादक परमात्मासे संयुक्त औरप्राण एवं चंद्रतारकप्रकाशमयी रात्रि से संयुक्तभौतिक अग्नि हमारेद्वारा आहुतिदान से प्रशंसितकिया जाता हुआहमारी आहुतियों कासम्यक प्रकार भक्षणकरे और उन्हेवातावरण में व्याप्तकर दे जिससेयज्ञ का अधिकाधिकलाभ पहुंचे |।४।।



सायं कालीन आहुति केशेष समान मन्त्र

ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नयेप्राणाय - इदं नमम।।१।।

ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय -इदंन मम।।२।।

ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय-इदं न मम।।३।।

ओम् भूर्भुवः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यःप्राणापानव्यानेभ्यः - इदं नमम।।४।।

ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतंब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।

ओम् यां मेधांदेवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनंकुरू स्वाहा।।६।।

ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानिपरासुव।यद भद्रं तन्न आसुव स्वाहा ।।७।।

अग्ने नय सुपथाराय अस्मान विश्वानिदेव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनोभूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम स्वाहा।।८।।

इनका अर्थ प्रातःकालीनमन्त्रों में कियाजा चुका है।
 

गायत्री मन्त्र
 

अब तीन बार गायत्री मन्त्र से आहुतिदेवें
 

 स्विष्टकृद आहुति -
ॐ यदस्य कर्मणो अत्यरीरिचं यद्वा न्युनमिहाकरम ।
अग्निष्टत स्विष्टकृद विद्यात सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतुमे । अग्नये
स्विष्टकद सुहुत हुते सर्व प्रायश्चित्ता हुतीनां कामानां समर्ध्ययित्रे
सर्वांगनः कामान्त्समर्ध्य स्वाहा ॥ इदमग्नये स्विष्टकृते - इदन्नमम ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यंभर्गो देवस्य धीमहि|
धियो यो नःप्रचोदयात् स्वाहा।।


उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्माको हम अन्तःकरणमें धारण करें वह परमात्माहमारी बुद्धि कोसन्मार्ग में प्रेरितकरे

पूर्णाहुति

इस मन्त्र से तीनबार घी सेपूर्णाहुति करें
 
ओम् सर्वं वै पूर्णंस्वाहा।।
 

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक, परमेश्वर! आप की कृपासे निश्चयपूर्वक मेराआज का यहसमग्र यज्ञानुष्ठान पूराहो गया हैमैं यह पूर्णाहुतिप्रदान करता हूँ।

पूर्णाहुतिमन्त्र को तीनबार उच्चारण करनाइन भावनाओं काद्योतक है किशारीरिक, आत्मिक और सामाजिकतथा पृथिवी, अन्तिरक्षऔर द्युलोक केउपकार की भावनासे, एवं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिकसुखों की प्राप्तिहेतु किया गयायह यज्ञानुष्ठान पूर्णहोने के बादसफल सिद्ध हो।इसकाउद्देश्य पूर्ण हो।

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