दैनिक यज्ञ
||अथ अग्निहोत्रमंत्र:||
अनुक्रम
· 1 जल से
आचमन करने के
मंत्र
· 2 जल से
अंग स्पर्श करने
के मंत्र
· 3 ईश्वर की स्तुति
- प्रार्थना – उपासना के मंत्र
· 4 दीपक जलाने
का मंत्र
· 5 यज्ञ कुण्ड
में अग्नि स्थापित
करने का मंत्र
· 6 अग्नि प्रदीप्त करने
का मंत्र
· 7 जल - प्रसेचन
के मन्त्र
· 8 चार घी
की आहुतियाँ
· 9 दैनिक अग्निहोत्र की
प्रधान आहुतियां - प्रातः कालीन
आहुति के मन्त्र
· 10 सायं कालीन
आहुति के मन्त्र
· 11 गायत्री मन्त्र
· 12 पूर्णाहुति
जल से आचमन
करने के मंत्र
इससे पहला
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।१।
इससे दूसरा
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।२।
इससे तीसरा
ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि
श्री: श्रयतां स्वाहा
।३।
मंत्रार्थ
– हे सर्वरक्षक अमर
परमेश्वर! यह सुखप्रद
जल प्राणियों का
आश्रयभूत है, यह
हमारा कथन शुभ
हो। यह मैं
सत्यनिष्ठापूर्वक मानकर कहता हूँ
और सुष्ठूक्रिया आचमन
के सदृश आपको
अपने अंत:करण
में ग्रहण करता
हूँ।।1।।
हे सर्वरक्षक अविनाशिस्वरूप, अजर
परमेश्वर! आप हमारे
आच्छादक वस्त्र के समान
अर्थात सदा-सर्वदा
सब और से
रक्षक हों, यह
सत्यवचन मैं सत्यनिष्ठापूर्वक
मानकर कहता हूँ
और सुष्ठूक्रिया आचमन
के सदृश आपको
अपने अंत:करण
में ग्रहण करता
हूँ।।2।।
हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण,
यश एवं प्रतिष्ठा.
विजयलक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझमे स्थित
हों, यह मैं
सत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँ
और सुष्ठूक्रिया आचमन
के सदृश आपको
अपने अंत:करण
में ग्रहण करता
हूँ।।3।।
जल से अंग
स्पर्श करने के
मंत्र
इसका प्रयोजन है-शरीर
के सभी महत्त्वपूर्ण
अंगों में पवित्रता
का समावेश तथा
अंतः की चेतना
को जगाना ताकि
यज्ञ जैसा श्रेष्ठ
कृत्य किया जा
सके । बाएँ
हाथ की हथेली
में जल लेकर
दाहिने हाथ की
उँगलियों को उनमें
भिगोकर बताए गए
स्थान को मंत्रोच्चार
के साथ स्पर्श
करें ।
इस मंत्र से मुख
का स्पर्श करें
ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु ॥
इस मंत्र से नासिका
के दोनों भाग
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ॥
इससे दोनों आँखें
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ॥
इससे दोनों कान
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥
इससे दोनों भुजाऐं
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥
इससे दोनों जंघाएं
ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ॥
इससे सारे शरीर
पर जल का
मार्जन करें
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा
मे सह सन्तु
॥
मंत्रार्थ
– हे रक्षक परमेश्वर!
मैं आपसे प्रार्थना
करता हूँ कि
मेरे मुख में
वाक् इन्द्रिय पूर्ण
आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य
सहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे
दोनों नासिका भागों
में प्राणशक्ति पूर्ण
आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित
विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे
दोनों आखों में
दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य
एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान
रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे
दोनों कानों में
सुनने की शक्ति
पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य
एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान
रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी
भुजाओं में पूर्ण
आयुपर्यन्त बल विद्यमान
रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी
जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य
पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान
रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरा
शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं
दोष रहित बने
रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर
के साथ सम्यक्
प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य
सहित विद्यमान रहें।
ईश्वर की स्तुति
- प्रार्थना – उपासना के मंत्र
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि
परासुव ।
यद् भद्रं तन्न आ
सुव ॥१॥
मंत्रार्थ
– हे सब सुखों
के दाता ज्ञान
के प्रकाशक सकल
जगत के उत्पत्तिकर्ता
एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त
परमेश्वर! आप हमारे
सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और
दुखों को दूर
कर दीजिए, और
जो कल्याणकारक गुण,
कर्म, स्वभाव, सुख
और पदार्थ हैं,
उसको हमें भलीभांति
प्राप्त कराइये।
हिरण्यगर्भ:
समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक
आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां
कस्मै देवाय हविषा
विधेम ॥२॥
मंत्रार्थ
– सृष्टि के उत्पन्न
होने से पूर्व
और सृष्टि रचना
के आरम्भ में
स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने
प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे,
ग्रह-उपग्रह आदि
पदार्थों को उत्पन्न
करके अपने अन्दर
धारण कर रखा
है, वह परमात्मा
सम्यक् रूप से
वर्तमान था। वही
उत्पन्न हुए सम्पूर्ण
जगत का प्रसिद्ध
स्वामी केवल अकेला
एक ही था।
उसी परमात्मा ने
इस पृथ्वीलोक और
द्युलोक आदि को
धारण किया हुआ
है, हम लोग
उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक,
शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त
परमात्मा की प्राप्ति
के लिये ग्रहण
करने योग्य योगाभ्यास
व हव्य पदार्थों
द्वारा विशेष भक्ति करते
हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य
विश्व उपासते प्रशिषं
यस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु:
कस्मै देवाय हविषा
विधेम ॥३॥
मंत्रार्थ
– जो परमात्मा आत्मज्ञान
का दाता शारीरिक,
आत्मिक और सामाजिक
बल का देने
वाला है, जिसकी
सब विद्वान लोग
उपासना करते हैं,
जिसकी शासन, व्यवस्था,
शिक्षा को सभी
मानते हैं, जिसका
आश्रय ही मोक्षसुखदायक
है, और जिसको
न मानना अर्थात
भक्ति न करना
मृत्यु आदि कष्ट
का हेतु है,
हम लोग उस
सुखस्वरूप एवं प्रजापालक
शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप,
दिव्य सामर्थ्य युक्त
परमात्मा की प्राप्ति
के लिये ग्रहण
करने योग्य योगाभ्यास
व हव्य पदार्थों
द्वारा विशेष भक्ति करते
हैं।
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक
इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य
द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा
विधेम ॥४॥
मंत्रार्थ
– जो प्राणधारी चेतन
और अप्राणधारी जड
जगत का अपनी
अनंत महिमा के
कारण एक अकेला
ही सर्वोपरी विराजमान
राजा हुआ है,
जो इस दो
पैरों वाले मनुष्य
आदि और चार
पैरों वाले पशु
आदि प्राणियों की
रचना करता है
और उनका सर्वोपरी
स्वामी है, हम
लोग उस सुखस्वरूप
एवं प्रजापालक शुद्ध
एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त
परमात्मा की प्रप्ति
के लिये योगाभ्यास
एवं हव्य पदार्थों
द्वारा विशेष भक्ति करते
हैं ।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च
दृढा येन स्व:
स्तभितं येन नाक:
।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान:
कस्मै देवाय हविषा
विधेम ॥५॥
मंत्रार्थ
– जिस परमात्मा ने
तेजोमय द्युलोक में स्थित
सूर्य आदि को
और पृथिवी को
धारण कर रखा
है, जिसने समस्त
सुखों को धारण
कर रखा है,
जिसने मोक्ष को
धारण कर रखा
है, जो अंतरिक्ष
में स्थित समस्त
लोक-लोकान्तरों आदि
का विशेष नियम
से निर्माता धारणकर्ता,
व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता
है, हम लोग
उस शुद्ध एवं
प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति
के लिये ग्रहण
करने योग्य योगाभ्यास
एवं हव्य पदार्थों
द्वारा विशेष भक्ति करते
हैं ।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो
विश्वा जातानि परिता बभूव
।
यत्कामास्ते
जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम
पतयो रयीणाम् ॥६॥
मंत्रार्थ
– हे सब प्रजाओं
के पालक स्वामी
परमत्मन! आपसे भिन्न
दूसरा कोई उन
और इन अर्थात
दूर और पास
स्थित समस्त उत्पन्न
हुए जड-चेतन
पदार्थों को वशीभूत
नहीं कर सकता,
केवल आप ही
इस जगत को
वशीभूत रखने में
समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ
की कामना वाले
हम लोग अपकी
योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों
से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ
की हमारी कामना
सिद्ध होवे, जिससे
की हम उपासक
लोग धन-ऐश्वर्यों
के स्वामी होवें
।
स नो बन्धुर्जनिता
स विधाता धामानि
वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना
स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥७॥
मंत्रार्थ
– वह परमात्मा हमारा
भाई और सम्बन्धी
के समान सहायक
है, सकल जगत
का उत्पादक है,
वही सब कामों
को पूर्ण करने
वाला है। वह
समस्त लोक-लोकान्तरों
को, स्थान-स्थान
को जानता है।
यह वही परमात्मा
है जिसके आश्रय
में योगीजन मोक्ष
को प्राप्त करते
हुए, मोक्षानन्द का
सेवन करते हुए
तीसरे धाम अर्थात
परब्रह्म परमात्मा के आश्रय
से प्राप्त मोक्षानन्द
में स्वेच्छापूर्वक विचरण
करते हैं। उसी
परमात्मा की हम
भक्ति करते हैं।
अग्ने नय सुपथा
राये अस्मान् विश्वानि
देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नम
उक्तिं विधेम ॥८॥
मंत्रार्थ
– हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक,
दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि
की प्राप्ति कराने
के लिये धर्मयुक्त,
कल्याणकारी मार्ग से ले
चल। आप समस्त
ज्ञानों और कर्मों
को जानने वाले
हैं। हमसे कुटिलतायुक्त
पापरूप कर्म को
दूर कीजिये ।
इस हेतु से
हम आपकी विविध
प्रकार की और
अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना
सत्कार व नम्रतापूर्वक
करते हैं।
दीपक जलाने का मंत्र
ॐ भूर्भुव: स्व: ॥
मंत्रार्थ
– हे सर्वरक्षक परमेश्वर!
आप सब के
उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को
दूर करने वाले
सुखस्वरूप एवं सुखदाता
हैं। आपकी कृपा
से मेरा यह
अनुष्ठान सफल होवे।
अथवा हे ईश्वर
आप सत,चित्त,
आनन्दस्वरूप हैं। आपकी
कृपा से यह
यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में,
अन्तरिक्ष में, द्युलोक
में विस्तीर्ण होकर
लोकोपकारक सिद्ध होवे।
यज्ञ कुण्ड में अग्नि
स्थापित करने का
मंत्र
ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना
पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे
॥
मंत्रार्थ
– हे सर्वरक्षक सबके
उत्पादक और प्राणाधार
दुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता
परमेश्वर! आपकी कृपा
से मैं महत्ता
या गरिमा में
द्युलोक के समान,
श्रेष्ठता या विस्तार
में पृथिवी लोक
के समान हो
जाऊं । देवयज्ञ
की आधारभूमि पृथिवी!
के तल पर
हव्य द्रव्यों का
भक्षण करने वाली
यज्ञीय अग्नि को, भक्षणीय
अन्न एवं धर्मानुकूल
भोगों की प्राप्ति
के लिए तथा
भक्षण सामर्थ्य और
भोग सामर्थ्य प्राप्ति
के लिए यज्ञकुण्ड
में स्थापित करता
हूँ ।
अग्नि प्रदीप्त करने का
मंत्र
ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने
प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं
च ।
अस्मिन्त्सधस्थे
अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च
सीदत ॥
मंत्रार्थ
– मैं सर्वरक्षक परमेश्वर
का स्मरण करता
हुअ यहाँ कामना
करता हूँ कि
हे यज्ञाग्ने ! तू
भलीभांति उद्दीप्त हो, और
प्रत्येक समिधा को प्रज्वलित
करती हुई पर्याप्त
ज्वालामयी हो जा।
तू और यह
यजमान इष्ट और
पूर्त्त कर्मों को मिल्कर
सम्पादित करें। इस अति
उत्कृष्ट, भव्य और
अत्युच्च यज्ञशाला में सब
विद्वान और यज्ञकर्त्ता
जन मिलकर बैठें।
घृत की तीन
समिधायें रखने के
मंत्र
इस मंत्र से प्रथम
समिधा रखें।
ॐ अयन्त इध्म आत्मा
जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान्
प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा । इदमग्नेय
जातवेदसे – इदं न
मम ॥१॥
मन्त्रार्थ-
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर
का स्मरण करता
हुआ कामना करता
हूँ कि हे
सब उत्पन्न पदार्थों
के प्रकाशक अग्नि!
यह समिधा तेरे
जीवन का हेतु
है ज्वलित रहने
का आधार है।उस
समिधा से तू
प्रदीप्त हो, सबको
प्रकाशित कर और
सब को यज्ञीय
लाभों से लाभान्वित
कर, और हमें
संतान से, पशु
सम्पित्त से बढ़ा।ब्रह्मतेज
( विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिक
तेज से, और
अन्नादि धन-ऐश्वयर्
तथा भक्षण एवं
भोग- सामथ्यर् से
समृद्ध कर। मैं
त्यागभाव से यह
समिधा- हवि प्रदान
करना चाहता हूँ
| यह आहुति जातवेदस
संज्ञक अग्नि के लिए
है, यह मेरी
नही है ||1||
इन दो मन्त्रों
से दूसरी समिधा
रखें
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम्
|
आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा
|
इदमग्नये इदन्न मम ||२||
मन्त्रार्थ-
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर
का स्मरण करते
हुए वेद के
आदेश का कथन
करता हूँ कि
हे मनुष्यो! समिधा
के द्वारा यज्ञाग्नि
की सेवा करो
-भक्ति से यज्ञ
करो।घृताहुतियों से गतिशील
एवं अतिथ के
समान प्रथम सत्करणीय
यज्ञाग्नि को प्रबुद्ध
करो, इसमें हव्यों
को भलीभांति अपिर्त
करो।मैं त्यागभाव से यह
समिधा- हवि प्रदान
करना चाहता हूँ।
यह आहुति यज्ञाग्नि
के लिए है,
यह मेरी नहीं
है ||२||
सुसमिद्धाय
शोचिषे घृतं तीव्रं
जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा।
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम
||३||
मन्त्रार्थ-
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर
के स्मरणपूर्वक वेद
के आदेश का
कथन करता हूँ
कि हे मनुष्यों!
अच्छी प्रकार प्रदीप्त
ज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्नि
के लिए वस्तुमात्र
में व्याप्त एवं
उनकी प्रकाशक अग्नि
के लिए उत्कृष्ट
घृत की आहुतियाँ
दो . मैं त्याग
भाव से समिधा
की आहुति प्रदान
करता हूँ यह
आहुति जातवेदस् संज्ञक
माध्यमिक अग्नि के लिए
है यह मेरी
नहीं।।३।। इस मन्त्र
से तीसरी समिधा
रखें।
तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा।।इदमग्नेऽङिगरसे इदं
न मम।।४।।
मन्त्रार्थ
- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर
का स्मरण करते
हुए यह कथन
करता हूँ कि
हे तीव्र प्रज्वलित
यज्ञाग्नि! तुझे हम
समिधायों से और
धृताहुतियों से बढ़ाते
हैं।हे पदार्थों को मिलाने
और पृथक करने
की महान शक्ति
से सम्पन्न अग्नि
! तू बहुत अधिक
प्रदीप्त हो, मैं
त्यागभाव से समिधा
की आहुति प्रदान
करता हूँ ।यह
अंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्नि
के लिए है
यह मेरी नहीं
है।
नीचे लिखे मन्त्र
से घृत की
पांच आहुति देवें
ओम् अयं त
इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व
वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान्
प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा।इदमग्नये जातवेदसे - इदं न
मम।।१।।
मन्त्रार्थ-
मैं सर्वरक्षक परमेश्वर
का स्मरण करता
हुआ कामना करता
हूँ कि हे
सब उत्पन्न पदार्थों
के प्रकाशक अग्नि!
यह धृत जो
जीवन का हेतु
है ज्वलित रहने
का आधार है।उस
धृत से तू
प्रदीप्त हो और
ज्वालाओं से बढ़
तथा सबको प्रकाशित
कर = सब को
यज्ञीय लाभों से लाभान्वित
कर और हमें
संतान से, पशु
सम्पित्त से बढ़ा।
विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिक
तेज से, और
अन्नादि धन ऐश्वर्य
तथा भक्षण एवं
भोग सामर्थ्य से
समृद्ध कर। मैं
त्यागभाव से यह
धृत प्रदान करता
हूँ ।यह आहुति
जातवेदस संज्ञक अग्नि के
लिए है, यह
मेरी नहीं है|
||१||
जल - प्रसेचन के मन्त्र
इस मन्त्र से पूर्व
में
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व।।
मन्त्रार्थ-
हे सर्वरक्षक अखण्ड
परमेश्वर! मेरे इस
यज्ञकर्म का अनुमोदन
कर अर्थात मेरा
यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत
रूप से सम्पन्न
होता रहे।अथवा, पूर्व
दिशा में, जलसिञ्चन
के सदृश, मैं
यज्ञीय पवित्र भावनाओं का
प्रचार प्रसार निबार्ध रूप
से कर सकूँ,
इस कार्य में
मेरी सहायता कीजिये।
इससे पश्चिम में
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व।।
मन्त्रार्थ-
हे सर्वरक्षक यज्ञीय
एवं ईश्वरीय संस्कारों
के अनुकूल बुद्धि
बनाने में समर्थ
परमात्मन! मेरे इस
यज्ञकर्म का अनुकूलता
से अनुमोदन कर
अर्थात यह यज्ञनुष्ठान
आप की कृपा
से सम्पन्न होता
रहे।अथवा, पश्चिम दिशा में
जल सिञ्चन के
सदृश मैं यज्ञीय
पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा
से कर सकूं,
इस कार्य में
मेरी सहायता कीजिये।
इससे उत्तर में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।।
मन्त्रार्थ-हे सर्वरक्षक
प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता
परमेश्वर! मेरे इस
यज्ञकर्म का अनुमोदन
कर अर्थात आप
द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि
से मेरा यह
यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से
सम्पन्न होता रहे।अथवा,
उत्तर दिशा में
जलसिञ्चन के सदृश
मैं यज्ञीय ज्ञान
का प्रचार-प्रसार
आपकी कृपा से
करता रहूँ, इस
कार्य में मेरी
सहायता कीजिये।
और - इस मन्त्र
से वेदी के
चारों और जल
छिड़कावें।
ओं देव सवितः
प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं
भगाय।दिव्यो
गन्धर्वः केतपूः केतं नः
पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।।
मन्त्रार्थ--
हे सर्वरक्षक दिव्यगुण
शक्ति सम्पन्न सब
जगत के उत्पादक
परमेश्वर! मेरे इस
यज्ञ कर्म को
बढाओ । आनन्द,
ऐश्वर्य आदि की
प्राप्ति के लिए
याग्यकर्त्ता को यज्ञकर्म
की अभिवृद्धि के
लिए और अधिक
प्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञान
के प्रकाशक हैं
पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र
ज्ञान के आश्रय
हैं, ज्ञान-विज्ञान
से बुद्धि मन
को पवित्र करने
वाले हैं, अतः
हमारे बुद्धि-मन
को पवित्र कीजिये।आप
वाणी के स्वामी
हैं, अतः हमारी
वाणी को मधुर
बनाइये। अथवा, चारों दिशायों
में जल सिञ्चन
के सदृश मैं
यज्ञीय पवित्र भावनाओं का
प्रचार-प्रसार कर सकूँ,
इस कार्य के
लिए मुझे उत्तम
ज्ञान, पवित्र आचरण और
मधुर-प्रशस्त वाणी
में समर्थ बनाइये।
चार घी की
आहुतियाँ
इस मन्त्र से वेदी
के उत्तर भाग
में जलती हुई
समिधा पर आहुति
देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये
- इदं न मम।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक प्रकाशस्वरूप दोषनाशक परमात्मा के
लिए मैं त्यागभावना
से धृत की
हवि देता हूँ।यह
आहुति अग्निस्वरूप परमात्मा
के लिए है,
यह मेरी नहीं
है।अथवा, यज्ञाग्नि के लिए
यह आहुति प्रदान
करता हूँ।
इस मन्त्र से वेदी
के दक्षिण भाग
में जलती हुई
समिधा पर आहुति
देवें।
ओम् सोमाय स्वाहा | इदं
सोमाय - इदं न
मम।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, शांति -सुख-स्वरूप
और इनके दाता
परमात्मा के लिए
त्यागभावना से धृत
की आहुति देता
हूँ ।अथवा, आनन्दप्रद
चन्द्रमा के लिए
यह आहुति प्रदान
करता हूँ।
इन दो मन्त्रों
से यज्ञ कुण्ड
के मध्य में
दो आहुति देवें।
ओम् प्रजापतये स्वाहा | इदं
प्रजापतये - इदं न
मम।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक प्रजा अर्थात सब
जगत के पालक,
स्वामी, परमात्मा के लिए
मैं त्यागभाव से
यह आहुति देता
हूँ।अथवा, प्रजापति सूर्य के
लिए यह आहुति
प्रदान करता हूँ
ओम् इन्द्राय स्वाहा | इदं
इन्द्राय - इदं न
मम।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक परमऐश्वर्य-सम्पन्न तथा
उसके दाता परमेश्वर
के लिए मैं
यह आहुति प्रदान
करता हूँ।अथवा ऐश्वयर्शाली,
शक्तिशाली वायु व
विद्युत के लिए
यह आहुति प्रदान
करता हूँ।
दैनिक अग्निहोत्र की प्रधान
आहुतियां - प्रातः कालीन आहुति
के मन्त्र
इन मन्त्रों से घृत
के साथ साथ
सामग्री आदि अन्य
होम द्रव्यों की
भी आहुतियां दें।
ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।
ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च:
स्वाहा।।२।।
ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योति
स्वाहा।।३।।
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यता
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वगतिशील सबका प्रेरक
परमात्मा प्रकाशस्वरूप है और
प्रत्येक प्रकाशस्वरूप वस्तु या ज्योति
परमात्ममय = परमेश्वर से व्याप्त
है।उस परमेश्वर अथवा
ज्योतिष्मान उदयकालीन सूर्य के
लिए मैं यह
आहुति देता हूं।।१।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वगतिशील और सबका
प्रेरक परमात्मा तेजस्वरूप है,
जैसे प्रकाश तेजस्वरूप
होता है, उस
परमात्मा अथवा तेजःस्वरूप
प्रातःकालीन सूर्य के लिए
मैं यह आहुति
देता हूं।।२।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, ब्रह्मज्योति =ब्रह्मज्ञान परमात्ममय है
परमात्मा की द्योतक
है परमात्मा ही
ज्ञान का प्रकाशक
है।मैं ऐसे परमात्मा
अथवा सबके प्रकाशक
सूर्य के लिए
यह आहुति प्रदान
करता हूं।।३।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वव्यापक, सर्वत्रगतिशील परमात्मा
सर्वोत्पादक, प्रकाश एवं प्रकाशक
सूर्य से प्रीति
रखने वाला, तथा
ऐश्वयर्शाली = प्रसन्न्ता, शक्ति तथा
धनैश्वर्य देने वाली
प्राणमयी उषा से
प्रीति रखनेवाला है अर्थात
प्रीतिपूर्वक उनको उत्पन्न
कर प्रकाशित करने
वाला है, हमारे
द्वारा स्तुति किया हुआ
वह परमात्मा हमें
प्राप्त हो = हमारी
आत्मा में प्रकाशित
हो।उस परमात्मा की
प्राप्ति के लिए
मैं यज्ञाग्नि में
आहुति प्रदान करता
हूं।अथवा सबके प्रेरक
और उत्पादक परमात्मा
से संयुक्त और
प्रसन्नता, शक्ति, ऐश्वयर्युक्त उषा
से संयुक्त प्रातःकालीन
सूर्य हमारे द्वारा
आहुतिदान का सम्यक्
प्रकार भक्षण करे और
उनको वातावरण में
व्याप्त कर दे,
जिससे यज्ञ का
अधिकाधिक लाभ हो।।४।।
प्रातः कालीन आहुति के
शेष समान मन्त्र
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नये
प्राणाय - इदं न
मम।।१।।
ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय -इदं
न मम।।२।।
ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय
-इदं न मम।।३।।
ओम् भूभुर्वः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः
प्राणापानव्यानेभ्यः - इदं न
मम।।४।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सबके उत्पादक
एवं सतस्वरूप, सर्वत्र
व्यापक, प्राणस्वरूप परमात्मा की
प्राप्ति के लिए
मैं यह आहुति
देता हूं।यह आहुति
अग्नि और प्राणसंज्ञक
परमात्मा के लिए
है।यह मेरी नही
है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक,
पृथिवीस्थानीय अग्नि के लिए
और प्राणवायु की
शुद्धि के लिए
मैं यह आहुति
प्रदान करता हूँ।।१।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सब दुखों
से छुड़ाने वाले
और चित्तस्वरूप सर्वत्र
गतिशील दोषों को दूर
करने वाले परमात्मा
की प्राप्ति के
लिए मैं आहुति
प्रदान करता हूँ।यह
आहुति वायु और
अपान संज्ञक परमात्मा
के लिए है।यह
मेरी नहीं है।अथवा
परमेश्वर के स्मरणपूर्वक
अन्तिरक्षस्थानीय वायु के
लिए और अपान
वायु की शुद्धि
के लिए मैं
यह आहुति प्रदान
करता हूँ।।२।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सुखस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप
अखण्ड और प्रकाशस्वरूप
सर्वत्र व्याप्त परमात्मा की
प्राप्ति के लिए
मैं यह आहुति
प्रदान करता हूँ।यह
आहुति आदित्य और
व्यान संज्ञक परमात्मा
के लिए है।यह
मेरी नहीं है।अथवा
सर्वरक्षक परमात्मा के स्मरणपूवर्क,
द्युलोकस्थानीय सूर्य के लिए
और व्यान वायु
की शुद्धि के
लिए यह आहुति
प्रदान करता हूँ।यह
आहुति आदित्य और
व्यान वायु के
लिए है, यह
मेरी नही है।।३।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सबके उत्पादक
एवं सतस्वरूप दुखों
को दूर करने
वाले एवं चित्तस्वरूप
सुख-आनन्द स्वरूप
सर्वत्र व्याप्त गतिशील प्रकाशक,
सबके प्राणाधार, दोषनिवारक
व्यापक स्वरूपों वाले परमात्मा
के लिए मैं
यह आहुति पुनः
प्रदान करता हूं।
यह आहुति उक्तसंज्ञक
परमात्मा के लिए
है , मेरी नहीं
है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूवर्क,
पृथिवीअन्तिरक्षद्युलोकस्थानीय
अग्नि वायु और
आदित्य के लिए
तथा प्राण, अपान
और व्यान संज्ञक
प्राणवायुओं की शुद्धि
के लिए मैं
यह आहुति पुनः
प्रदान करता हूं।।४।।
ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं
ब्रह्म भूभुर्वः स्वरों स्वाहा।।५।।
मन्त्रार्थ-
हे सर्वरक्षक परमेश्वर
आप सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशस्वरूप
एवं प्रकाशक, उपासकों
द्वारा रसनीय, आस्वादनीय, आनन्द
हेतु उपासनीय, नाशरिहत,
अखण्ड, अजरअमर, सबसे महान,
प्राणाधार और सतस्वरूप,
दुखों को दूर
करने वाले और
चितस्वरूप, सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता
और आनन्दस्वरूप, सबके
रक्षा करनेवाले हैं।ये
सब आपके नाम
हैं, इन नामों
वाले आप परमेश्वर
की प्राप्ति के
लिए मैं आहुति
प्रदान करता हूँ।।
ओम् यां मेधां
देवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं
कुरू स्वाहा।।६।।
मन्त्रार्थ-
हे सर्वरक्षक ज्ञानस्वरूप
परमेश्वर ! जिस धारणावती
= ज्ञान, गुण, उत्तम
विचार आदि को
धारण करने वाली
बुद्धि की दिव्य
गुणों वाले विद्वान
और पालक जन
माता-पिता आदि
ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध
जन उपासना करते
हैं अर्थात चाहते
हैं और उसकी
प्राप्ति के लिये
यत्नशील रहते हैं
उस मेधा बुद्धि
से मुझे आज
मेधा बुद्धि वाला
बनाओ।इस प्रार्थना के साथ
मैं यह आहुति
प्रदान करता हूँ।।
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि
परासुव।यद भद्रं तन्न आ
सुव स्वाहा ।।७।।
मन्त्रार्थ-
हे सर्वरक्षक दिव्यगुणशक्तिसम्पन्न,
सबके उत्पादक और
प्रेरक परमात्मन्! आप कृपा
करके हमारे सब
दुगुर्ण, दुव्यर्सन और दुखों
को दूर कीजिए
और जो कल्याणकारक
गुण, कर्म, स्वभाव
हैं उनको हमें
भलीभांति प्राप्त कराइये।।
अग्ने नय सुपथा
राय अस्मान विश्वानि
देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नम
उक्ति विधेम स्वाहा।।८।।
मन्त्रार्थ-
हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक
दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मन् ! हमको ज्ञानविज्ञान,
ऐश्वर्य आदि की
प्राप्ति के लिए
धमर्युक्त कल्याणकारी मार्ग से
ले चल। आप
समस्त ज्ञानविज्ञानों और
कर्मों को जानने
वाले हैं हमसे
कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को
दूर कीजिये। इस
हेतु से हम
आपकी विविध प्रकार
की और अधिकाधिक
स्तुतिप्रार्थनाउपासना, सत्कार नम्रतापूर्वक करते
हैं।
सायं कालीन आहुति के
मन्त्र
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।१।।
ओम् अग्निवर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।
इस तीसरे मन्त्र को
मन मे उच्चारण
करके आहुति देवें
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।३।।
ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजुरात्र्येन्द्रवत्या
जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।।४।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक
परमात्मा ज्योतिस्वरूप = प्रकाशस्वरूप है, और
प्रत्येक ज्योति या ज्योतियुक्त
पदार्थ अग्निसंज्ञक परमात्मा से
व्याप्त है। मैं
उस परमात्मा की
प्राप्ति के लिए
अथवा ज्योतिःस्वरूप अग्नि
के लिए आहुति
प्रदान करता हूँ।।१।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक
परमात्मा तेजस्वरूप है, जैसे
प्रत्येक प्रकाशयुक्त वस्तु या
प्रकाश तेजस्वरूप होता है,
मैं उस परमात्मा
की प्राप्ति के
लिए अथवा तेजःस्वरूप
अग्नि के लिए
आहुति प्रदान करता
हूँ।।२।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक
परमात्मा ब्रह्मज्योति और ज्ञानविज्ञानस्वरूप
है ब्रह्मज्योति और
ज्ञानविज्ञान अग्निसंज्ञक परमात्मा से
उत्पन्न अथवा उसका
द्योतक है मैं
उस परमात्मा की
प्राप्ति हेतु और
सबको प्रकाशित करने
वाले अग्नि के
लिए आहुति प्रदान
करता हूँ।।३।।
मन्त्रार्थ-
सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक,
प्रकाशस्वरूप परमात्मा प्रकाशस्वरूप एवं
प्रकाशक सूर्य से प्रीति
रखने वाला तथा
प्राणमयी एवं चंद्रतारक
प्रकाशमयी रात्रि से प्रीति
रखने वाला है
अर्थांत प्रीतिपूवर्क उनको उत्पन्न
कर, प्रकाशित करने
वाला है, हमारे
द्वारा स्तुति किया जाता
हुआ वह परमात्मा
हमें प्राप्त हो-
हमारी आत्मा में
प्रकाशित हो। उस
परमात्मा की प्राप्ति
के लिए मैं
यज्ञाग्नि में आहुति
प्रदान करता हूँ।।
अधिदैवत पक्ष मे
- सबके प्रकाशक सूर्य से
और सबके प्रेरक
और उत्पादक परमात्मा
से संयुक्त और
प्राण एवं चंद्रतारक
प्रकाशमयी रात्रि से संयुक्त
भौतिक अग्नि हमारे
द्वारा आहुतिदान से प्रशंसित
किया जाता हुआ
हमारी आहुतियों का
सम्यक प्रकार भक्षण
करे और उन्हे
वातावरण में व्याप्त
कर दे जिससे
यज्ञ का अधिकाधिक
लाभ पहुंचे |।४।।
सायं कालीन आहुति के
शेष समान मन्त्र
ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नये
प्राणाय - इदं न
मम।।१।।
ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय -इदं
न मम।।२।।
ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय
-इदं न मम।।३।।
ओम् भूर्भुवः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः
प्राणापानव्यानेभ्यः - इदं न
मम।।४।।
ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं
ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।
ओम् यां मेधां
देवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं
कुरू स्वाहा।।६।।
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि
परासुव।यद भद्रं तन्न आ
सुव स्वाहा ।।७।।
अग्ने नय सुपथा
राय अस्मान विश्वानि
देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नम
उक्तिं विधेम स्वाहा।।८।।
इनका अर्थ प्रातःकालीन
मन्त्रों में किया
जा चुका है।
गायत्री मन्त्र
अब तीन बार
गायत्री मन्त्र से आहुति
देवें
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि
|
धियो यो नः
प्रचोदयात् स्वाहा।।
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ,
तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा
को हम अन्तःकरण
में धारण करें
। वह परमात्मा
हमारी बुद्धि को
सन्मार्ग में प्रेरित
करे ।
पूर्णाहुति
इस मन्त्र से तीन
बार घी से
पूर्णाहुति करें
ओम् सर्वं वै पूर्णं
स्वाहा।।
मन्त्रार्थ-
हे सर्वरक्षक, परमेश्वर
! आप की कृपा
से निश्चयपूर्वक मेरा
आज का यह
समग्र यज्ञानुष्ठान पूरा
हो गया है
मैं यह पूर्णाहुति
प्रदान करता हूँ।
पूर्णाहुति
मन्त्र को तीन
बार उच्चारण करना
इन भावनाओं का
द्योतक है कि
शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक
तथा पृथिवी, अन्तिरक्ष
और द्युलोक के
उपकार की भावना
से, एवं आध्यात्मिक,
आधिदैविक और आधिभौतिक
सुखों की प्राप्ति
हेतु किया गया
यह यज्ञानुष्ठान पूर्ण
होने के बाद
सफल सिद्ध हो।इसका
उद्देश्य पूर्ण हो।
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