शनिवार, 7 जून 2014

उपनिषदों का अमर सन्देश

उपनिषदों का अमर सन्देश

१. उनिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत ।

क्षुरस्य धरा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति ।।

(कठो॰ ३.१४)


अर्थात् अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्यो ! उठो ।

जागो और अपने श्रेष्ठ (विद्वान् व योगी) पुरुषों के पास जाकर ब्रह्मज्ञान

को सीखो । यह ब्रह्मज्ञान का मार्ग तेज उस्तरे की धार के समान अत्यन्त

दुर्गम है । ऐसा परमात्मा के साक्षात्कार करने वाले उपदेश करते हैं ।

२. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः । (र्इशावास्योप॰ )

हे मनुष्यो ! जीवन भर श्रेष्ठ कर्मो को करते हुए ही जीने की

इच्छा करो ।

३. तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृध्ः कस्यस्विद् धनम् ।। (र्इशावा॰ )

अनासक्ति भाव से संसार के भोगों को भोगो और किसी के

धन या वस्तुओं की इच्छा मत करो ।

४. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ।। (कठो॰१.२७)

मनुष्य की धन से कभी तृप्ति नहीं हो सकती ।

५. नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।। (कठो॰२.२४)

परमात्मा की प्राप्ति केवल बाह्यप्रदर्शन भजन कीर्त्तन से तबतक

कदापि नहीं हो सकती । जबतक पाप-कर्मो में लगा हुआ है । अशान्त इन्द्रियों

के विषयों में फंसा हुआ है । असमाहित= विक्षिप्त चित्त वाला है और

अशान्त मन= जिसका मन तृष्णा में फंसा हुआ है । चाहे कितना ही

विद्वान् हो जाए । उसे उपर्युक्त दुष्कर्म छोड़ने पर ही परमात्मज्ञान हो

सकता है ।

६. भस्मान्तं शरीरम् ।। (र्इशावास्योप॰ )
शरीर का अन्तिम संस्कार भस्मान्त= दाह ​क्रिया ही है । तत्पश्चात्

मृतक के लिए कोर्इ मृतक श्राद्ध या संस्कार शेष नहीं रहता । संसार के

सभी शारीरिक सम्बन्धों का अन्त भी भस्म ही है ।

७. ओ३म कृतो स्मर ।। (र्इशावास्यो॰ )

ओ३म् परमात्मा का मुख्य नाम है । हे कृतो कर्मशील जीव ! तू

ओ३म् का ही स्मरण किया कर ।

८. स पर्यगाच्छुव्म् अकायम् । (र्इशावास्यो॰ )

वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है । सर्वशक्तिमान् तथा स्थूल । सूक्ष्म व

कारणशरीरों से रहित है ।

९. विद्ययाsमृतमश्नुते ।। (र्इशावास्यो॰ )

परमात्मा की प्राप्ति विद्या=आत्मा और शुद्धान्तः करण के संयोगरूप

धर्म से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान से होती है ।

१०. ओ३म खं ब्रह्म ।। (र्इशावास्यो॰ )

वह परमात्मा किसी स्थान विशेष में नहीं रहता । वह तो आकाश

के समान व्यापक । ओ३म =सब का रक्षक तथा ब्रह्म=गुण , कर्म , स्वभाव

से सब से बड़ा है ।

11. सत्यमेव जयते नानृतम् ।। (मुण्डको॰ )
सत्य ही की विजय होती है । झूठ की नहीं ।

12. न तस्य काय करणं च विद्यते ।। (श्वेताश्वतर॰ )

उस परमात्मा का कोर्इ कारण नहीं है । और न ही उसका कोर्इ

कार्य ही हैअर्थात् परमात्मा इस जगत् का उपादानकारण नहीं है ।

13. तमेव विदित्वातिमृत्युमेति ।। (श्वेताश्वतर॰ )

मनुष्य एकमात्र परब्रह्म को जानकर ही मृत्युदुः ख से मुक्त हो

सकता है ।

उपनिषद् विषयक महर्षि दयानन्द के वचन

1. वेदान्तसूत्रों के पढ़ने से पूर्व र्इश । केन । कठ । प्रश्न । मुण्डक ।

माण्डूक्य । ऐतरेय । तैतिरीय । छान्दोग्य और बृहदारsयक इन दश उपनिषदों

को पढ़के छः शास्त्रों के भाष्यवृत्ति-सहित सूत्रों को दो वर्ष के भीतर

पढ़ावें और पढ़ लेवें ।, (सत्यार्थन तृतीय समु॰ )

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