प्रतिमा-पूजन वेद विरूद्ध
विषयवती वा प्रवृनिरुत्पन्ना मनस: स्थितिनिबन्ध्नी ।
(योग॰ समा॰ ३५)
इस सूत्रा के भाष्य में लिखा है कि--
एतेन चंद्रदित्यग्रहमणिप्रदीपरत्नादिषु प्रवृ्त्तिरुत्पन्ना विषयवत्येव
वेदितव्येति ।
इससे प्रतिमा-पूजन कभी नहीं आ सकता । क्योंकि इन में देवबुद्धि करना नहीं लिखा । किन्तु जैसे वे जड़ हैं, वैसे ही योगी लोग उनको जानते
हैं । और बाह्यमुख जो वृ्त्ति, उस को भीतर मुख करने के वास्ते योगशास्त्र
की प्रवृत्ति है । बाहर के पदार्थ का ध्यान करना, योगी लोग को नहीं
लिखा । क्योंकि जितने सावयव पदार्थ हैं, उनमें कभी चिन की स्थिरता नहीं
होती । और जो होवे तो मूर्तिमान् धन, पुत्रा, दारादिक के मयान में सब संसार
लगा ही है । परन्तु चि्त्त की स्थिरता कोर्इ की भी नहीं होती । इस वास्ते
यह सूत्रा लिखा--
विशोका वा ज्योतिष्मती (योग॰स॰६६)
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