वैदिक-एकेश्वरवाद-अर्थात-ईश्वर-एक-हैं
By Veda Mandan Pakhand Khandan on Wednesday, May 7, 2014 at 1:53pm
वैदिक-एकेश्वरवाद-अर्थात-ईश्वर-एक-हैंहमारा
महान आर्यव्रत देश सृष्टी के प्रारंभ से लेकर महाभारत युद्ध के कुछ काल
पश्चात तक विश्व गुरु के रूप में संसार का मार्ग दर्शन करता रहा.कालांतर
में वेद विद्या का लोप होने से, धर्म के नाम पर अनेक मत मतान्तरों का
प्रचलन होने से, धार्मिक क्रम कांडों के नाम पर यज्ञों में पशु बलि, मांस,
मदिरा, मैथुन से ईश्वर प्राप्ति होने के पाखंड के प्रचलित होने से ,वेदों
में वर्णित सच्चिदानंदस्वरुप, सर्वव्यापक, सर्वत्र, सर्वशक्तिमान, निराकार,
निर्विकार, अजन्मा, अविनाशी, न्यायकारी, दयालु,जगत के कर्ता-धर्ता एक
ईश्वर का स्थान अज्ञानी, अनेक अवतार धारण कर जन्म लेने वाले एवं मृत्यु को
प्राप्त होने वाले,साकार, एकदेशीय आदि अवगुणों वाले अनेक ईश्वरों
(बहुदेवतावाद) ने ले लिया. आर्याव्रत देश की सबसे बड़ी शक्ति उसकी
अध्यात्मिक उन्नति थी जिससे वो संसार भर को अपने विज्ञान से प्रकाशित करता आ
रहा था. इस पतन के कारण न केवल उसके ज्ञान का नाश हुआ अपितु अनेक मत
मतान्तरों के प्रचलित होने से उसकी एकता और अखंडता नष्ट हो गयी जिससे वह
विदेशी हमलावरों के सामने प्रतिकार न कर सका और अपनी स्वतंत्रता खोकर
सदियों के लिए गुलाम बन गया.वेदों के अप्रतिम विद्वान,सत्य के महान
अन्वेषक, वेदों के भाष्यकार, संसार में वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने वाले
ऋषिवर दयानंद सरस्वती ने वेदों के विषय में वर्णित सभी भ्रांतियों में से
वेदों में वर्णित ईश्वर के सत्य स्वरुप को सिद्ध करने में विशष श्रम
किया.उन्ही से प्रेरणा पाकर इस लेख में वेदों में वर्णित एकेश्वरवाद अर्थात
“ईश्वर एक हैं” का प्रतिपादन करेंगे.वेदों में वर्णित ईश्वर के विषय में
प्रमुख भ्रान्ति इस प्रकार हैं की ईश्वर एक नहीं अनेक हैं, वेदों में अनेक
देवताओं जैसे इन्द्र, अग्नि, वायु आदि का वर्णन हैं.वेदों में एकेश्वरवाद
अर्थात एक ईश्वर होने के प्रमाणऋग्वेद ६/५१/१६- हे मनुष्य ! जो एक ही सब
मनुष्यों का ठीक ठीक देखने वाला सर्वज्ञ सुखों की वर्षा करने वाले कर्म व
ज्ञान वाला सर्वशक्तिमान सबका स्वामी हैं, तू सदा उसी की स्तुति कर.ऋग्वेद
८/१/१- हे मित्रों तुम किसी अन्य की विशेष स्तुति अर्थात प्रार्थना उपासना न
करो और इस प्रकार अन्यों की स्तुति करके मत दुःख उठाओं. सदा एकांत में और
मिलकर किये हुए यज्ञों में सुख, शांति और आनंद की वर्षं करने वाले एक
परमेश्वर की ही स्तुति करो और बार बार उसी के स्तुति वचनों का उच्चारण
करो.ऋग्वेद १/१६४/४६ में एक ईश्वर होने का महान सन्देश “एकं सद्विप्रा
बहुधा वदन्ति” हैं. विद्वान ज्ञानी लोग एक ही सत्यस्वरूप परमेश्वर को विविध
गुणों को प्रकट करने के लिए इन्द्र, मित्र,वरुण आदि अनेक नामों से पुकारते
हैं. परम ऐश्वर्य संपन्न होने से परमेश्वर को इन्द्र, सबका स्नेही होने से
मित्र, सर्वश्रेष्ठ और अज्ञान व अन्धकार निवारक होने से वरुण, ज्ञान
स्वरुप और सबका अग्रणी नेता होने से अग्नि, सबका नियामक होने से यम,
आकाश,जीवादी में अन्तर्यामिन रूप में व्यापक होने से मातरिश्वा आदि नामों
से उस एक की ही स्तुति करते हैं.सामवेद मंत्र २५९ में सायण आचार्य इस कथन
की पुष्टि करते हैं.Maxmuller writes in the six systems of philosophy
that whatever is the age when the collection of our rigveda samhita was
finished, it was before that age, that the conception had been formed
that there is but one, one being neither male nor female, a being raised
high above all the conditions and limitations of personality and of
human nature and nevertheless the being that was really meant by all
such names as Indra, Agni,Matrishwan and by the name of Prajapati- Lord
of Creatures.प्रो. मक्समूलर तथा यूरोप के कई अन्य विद्वान इस प्रकार के
स्पष्ट एकेश्वरवाद प्रतिपादक वेदमंत्रों को ईसाइयत अथवा विकासवाद के
पक्षपात के कारण पीछे की रचना बताने का प्रयत्न करते हैं. इस पक्षपात का
स्पष्ट प्रमाण प्रो.मक्समूलर द्वारा लिखित History of Ancient Sanskrit
Literature में इस प्रकार मिलता हैंI add only one more hymn (Rig 10,121)
in which the idea of one god is expressed with such power and decision
that it will make us hesitate before we deny to the Aryans an
instinctive monotheism.In Vedic Hymns page 3 maxmuller writes about same
hymn as “This is one of the Hymns which has always been suspected as
modern by European interpreters.”ऋग्वेद के १०/१२१/१० प्रजापते न
त्वदेतान्यन्यो विश्व जातानि परि ता बभूव मन्त्र के विषय में मक्स मूलर
लिखते हैं की this last verse is to my mind the most suspicious of all
अर्थात यह अंतिम मंत्र जिसमें परमेश्वर को संबोधन करते हुए कहा गया हैं की
तुम्हें छोड़कर अन्य कोई भी इस सारे जगत में व्यापक और इसका स्वामी नहीं
हैं, मेरी सम्मति में सबसे अधिक संदेहास्पद हैं.वेदों में जिन मन्त्रों में
एकेश्वरवाद का स्पष्ट उपदेश हैं उन्हें मानने में पाश्चात्य विद्वानों
द्वारा संकोच करना ईसाई पक्षपात और विकासवाद के मिथक सिद्धांत का पोषक
हैं.ऋग्वेद ६/२२/१- जो परमेश्वर सब मनुष्यों का एक ही पूजनीय हैं, उसकी इन
वाणियों से चारों ओर से प्रेमपूर्वक पूजा कर.ऋग्वेद १०/७२ सूक्त के मंत्र
२,३,६ में तीन बार ईश्वर के लिए एक शब्द का प्रयोग हुआ हैं. वेदों में
एकेश्वरवाद सिद्ध न हो शायद इसीलिए ऋग्वेद के दसवें मंडल को नवीन सिद्ध
करने का प्रयास पाश्चात्य विद्वानोंद्वारा किया गया जो संदेहास्पद
हैं.ऋग्वेद १०/७२/२- वह जगतकर्ता परमेश्वर विविध मनों का स्वामी, आकाश के
तुल्य व्यापक, संसार का धारण करने वाला, विशेष रूप से सूर्य चन्द्र तथा लोक
लोकान्तरों का धारण ओर पोषण करने वाला, अत्यंत उत्कृष्ट ओर सर्वज्ञ हैं,
जिस परमेश्वर के विषय में विद्वान् कहते हैं की वह सात इन्द्रियों से परे
एक ही हैं और जिस परमेश्वर के आश्रय में उन इन्द्रियादी के अभिलाषित सब
भोग्य पदार्थ उस प्रभु की प्रेरक शक्ति से भली प्रकार हर्ष के कारण बनते
हैं.ऋग्वेद १०/७२/३ -जो परमेश्वर हमारा पालक हैं, उत्पादक हैं और जो विशेष
रूप से हमारा धारण करने वाला और सब स्थानों लोकों और उत्पन्न पदार्थों को
जानता हैं, जो सब देवों- इन्द्र , मित्र, वरुण, अग्नि, यम इत्यादि से नाम
को प्रधानतया धारण करने वाला एक ही देव हैं उस अच्छी प्रकार से जानने योग्य
परमेश्वर की ओर ही अन्य सब लोक ओर प्राणी गति कर रहे हैं.ऋग्वेद १०/७२/६
-प्रकृति ओर उसके परमाणुओं को सबसे पूर्व धारण करने वाला वही एक परमेश्वर
हैं , इस अज-प्रकृति, सत्व या प्रधान की नाभि में एक ब्रहम तत्व ही ऊपर
अधिष्ठाता रूप में विराजमान हैं, जिसके आधार पर सब लोक स्थित हैं, जो सारे
जगत का संचालक ओर अध्यक्ष हैं.ऋग्वेद के १० वें मंडल के अतिरिक्त भी अन्य
मंडलों में एकेश्वरवाद के अनेक प्रमाण हैं जैसेऋग्वेद ८/२५/१६ – यह प्रजाओं
का स्वामी एक ही हैं, वह एक ही संसार का स्वामी सब प्रजाओं का ठीक ठीक
निरिक्षण करता हैं. सब कुछ जानता हैं.ऋग्वेद ८/१/२७ – जो परमेश्वर एक,
अत्यंत आश्चर्यजनक, महान और अपने व्रतों के कारण अति तेजस्वी और दुष्टों के
लिए भयंकर हैं उसी का ध्यान सबको करना चाहिए.ऋग्वेद १/१००/७ – परमेश्वर को
सब करुणापूर्ण शुभ कर्मों का एकमात्र स्वामी बताया गया हैं.ऋग्वेद
१/५४/१४- जिस परमेश्वर के आकाश और पृथ्वी, समुद्र और अन्य लोक-लोकान्तर अंत
नहीं पा सकते वह सब में ओत-प्रोत हैं, ऐसा वह परमेश्वर एक ही हैं.सामवेद
३७२ और अथर्ववेद ७/२१/१ – हे मनुष्यों! तुम सब सरल भाव और आत्मिक बल के साथ
परमेश्वर की ओर उसका ध्यान- भजन के लिए आओ, जो एक ही मनुष्यों में अतिथि
की तरह पूजनीय अथवा सर्वव्यापक हैं. वह सनातन- नित्य हैं और नए उत्पन्न
पदार्थों के अन्दर भी व्याप रहा हैं. ज्ञान-कर्म-भक्ति के सब मार्ग उसकी और
जाते हैं. वह निश्चय से एक ही हैं.ऋग्वेद २/१/३ और २/१/४ में परमात्मा को
अग्नि के नाम से संबोधित करते हुए कहा गया हैं की तू ही इन्द्र, विष्णु,
ब्रह्मा और ब्रह्मणस्पति हैं, तू ही वरुण, मित्र, अर्यमा आदि नामों से
पुकारा जाता हैं अर्थात परम ऐश्वर्य संपन्न होने से वही परमेश्वर इन्द्र,
सर्वव्यापक होने से विष्णु, सबसे बड़ा होने से ब्रह्मा, ज्ञान स्वामी होने
से वरुण, सबका स्नेही होने से मित्र और न्यायकारी होने से अर्यमा के नाम से
याद किया जाता हैं.अथर्ववेद १३/४/५ – वही परमात्मा अर्यमा, वरुण, इन्द्र,
महादेव, अग्नि,सूर्य, महायम इत्यादि नामों से पुकारा जाता हैं. वह एक
परमात्मा ही नमस्कार करने योग्य हैं.इस प्रकार अनेक वैदिक मन्त्रों के
प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की वेदों में एक ही ईश्वर का वर्णन हैं जो
उपासना करने योग्य हैं.
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