गुरुवार, 29 मई 2014

व्यवहारभानु vaidc Prashnottar



व्यवहारभानु   ( Vaidc Prashnottar )

प्र0) विद्या और अविद्या किसको कहते हैं ?
उ0) जिससे पदार्थ यथावत् जानकर न्याययुक्त कर्म किये जावें वह विद्या
और जिससे किसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान न होकर अन्यायरूप कर्म किये
जायें वह अविद्या कहाती है  

प्र0) न्याय और अन्याय किसको कहते हैं ?
उ0) जो पक्षपात रहित सत्याचरण करना है, वह न्याय और जो पक्षपात
से मिथ्याचरण करना है, वह अन्याय कहाता है।

प्र0) धर्म और अधर्म किसको कहते हैं ?
उ0) जो न्यायाचरण सबके हित का करना आदि कर्म हैं उनको धर्म और
जो अन्यायाचरण सबके अहित के काम करने हैं उनको अधर्म जानो ॥

महामूर्ख का लक्षण
एक प्रियदास का चेला भगवानदास अपने गुरु से बारह वर्ष पर्यन्त
पढ़ा। एक दिन उसने पूछा कि महाराज! मुझको संस्Ïत बोलना नहीं आया!
गुरु बोले---सुन बे! पढ़ने-पढ़ाने से विद्या नहीं आती। किन्तु गुरु की Ïपा
से आ जाती है। जब गुरु सेवा से प्रसन्न होता है तब जैसे कुंजियों से ताला
खोलकर मकान के सब पदार्थ झट देखने में आते हैं, वे ऐसी युक्ति बतला
देते हैं कि हृदय के कपाट खुल जाकर सब पदार्थविद्या तत्क्षण आ जाती है।
सुन! संस्Ïत बोलने की तो सहज युक्ति है। (भगवानदास) महाराज जी! वह
क्या है ? (गुरु) संसार में जितने शब्द संस्Ïत वा देशभाषा में हो, उन पर
एक-एक बिन्दु धरने से सब शुद्ध संस्Ïत हो जाते हैं। अच्छा तो महाराज
जी लोटा, जल, रोटी, दाल, शाक आदि शब्दों पर बिन्दु धर के कैसे संस्Ïत
हो जाते हैं। देखो लोंटां। जंलं। रोंटीं। दांलं। शांकं। चेला बोला वाह-वाह
गुरु के बिना क्षणमात्र में पूरी विद्या कौन बतला सकता है ? भगवानदास ने
अपने आसन पर जाकर विचार के यह श्लोक बनाया कृ

बांपं आंजां नमंस्Ïंत्यं परं पांजं तंथैवं चं ।

मंयां भंगंवांनं दांसेनं गींतां टींकां कंरोंम्यंहम् ॥

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जब उसने प्रात:काल उठकर हष्िरत होके गुरु के पास जाकर श्लोक
सुनाया, तब तो प्रियदास जी भी बहुत प्रसन्न हुए कि जो चेले हों तो तेरे ही
समान गुरु के वचन पर विश्वासी और गुरु हो तो मेरे सदृश हो। ऐसे मनुष्यों
का क्या औषध है ? विना अलग रहने के।

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