व्यवहारभानु
प्र0) विना पढ़े हुए मनुष्यों
की क्या गति होगी?
उ0) दो, एक अच्छी और दूसरी बुरी।
अच्छी उसको कहते हैं कि जो
मनुष्यविद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रक्खे
और वह धर्माचरण किया चाहे
तो विद्वानों के सन्ग और अपने आत्मा की पवित्रता
और अविरुद्धता से
धर्मात्मा अवश्य हो सकता है। क्योंकि सब मनुष्यों
का विद्वान् होना तो
सम्भव ही नहीं, परन्तु धार्मिक होने का सम्भव
सब के लिये है कि जैसे अपने
लिये सुख की प्राप्ति और दु:ख के त्याग, मान्य
होने, अपमान के न होने
आदि की अभिलाषा करते हैं तो दूसरों के लिये क्यों
न करनी चाहिये? जब
किसी को कोर्इ चोरी वा किसी पर झूठा जाल लगाता
है तो क्या उसको
अच्छा लगता और क्या जिस-जिस कर्म के करने में
अपने आत्मा को शंड़प्रा,
लज्जा और भय नहीं होता, वह-वह धर्म किसी को विदित
नहीं होता? क्या
जो कोर्इ आत्म विरोध अर्थात् आत्मा में कुछ और
वाणी में कुछ भिन्न और
क्रिया में विलक्षणता करता है, वह अधर्मी और
जिसके जैसा आत्मा में वैसा
वाणी और जैसा वाणी में वैसा ही क्रिया में आचरण
है वह धर्मात्मा नहीं है?
प्रमाण-----
असुर्य्या नाम ते लोका अन्धेन
तमसावृता: ।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति
ये के चात्महनो जना: ॥1 ॥
॥यजु0
अ0 40। मन्त्र 3 ॥
अर्थकृ (ये) जो (आत्महन:)
आत्महत्यारे अर्थात् आत्मस्थ ज्ञान से
विरुद्ध कहने, मानने और करनेहारे हैं (ते)
वे ही (लोका:) लोग (असुर्य्या
नाम) असुर अर्थात् दैत्य, राक्षस
नाम वाले मनुष्यहैं और वे ही (अन्धेन
तमसावृता:) बड़े अधर्मरूप अन्धकार से
युक्त होके जीते हुए और मरण
को प्राप्त होकर (तान्) दु:खदायक देहादि
पदार्थों को (अभिगच्छन्ति)
सर्वथा प्राप्त होते हैं और जो आत्मरक्षक अर्थात्
आत्मा के अनुकूल ही
कहते, मानते और आचरण करते हैं, वे मनुष्यविद्यारूप
शुद्ध प्रकाश से
युक्त होकर देव अर्थात् विद्वान् नाम से प्रख्यात
हैं । वे ही सर्वदा सुख को
प्राप्त होकर मरने के पीछे भी आनन्दयुक्त देहादि
पदार्थों को प्राप्त होते हैं ॥
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