अथ विवाहविषय“ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका “
गभृणामि ते सौभागत्वाय हस्त मया पत्यां जरदष्टि र्यथास: ।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्हरपत्याय देव: ।।१।।
इहेव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायर्व्यश्नुतम व र्श् नतु म ।
क्रीडन्तौ पत्रु पुत्रेर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्व गृहे ।।२।।
ऋ॰ अ॰८। अ॰३। व॰२७,२८। मं॰१,२ ।।
भाषार्थ--- (गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं॰) हे स्त्रि मैं सौभाग्य अर्थात् गृहाश्रम में सुख के
लिये तेरा हस्त ग्रहण करता हूं और इस बात की प्रतिज्ञा करता हूं कि जो काम तुझ को अप्रिय होगा,
उस को मैं कभी न करूंगा । ऐसे ही स्त्री भी पुरुष से कहे कि जो व्यवहार आप को अप्रिय होगा,
उस को मैं भी कभी न करूंगी । और हम दोनों व्यभिचारादि दोषरहित होके वृद्धावस्थापर्यन्त परस्पर
आनन्द के व्यवहारों को करेंगे । हमारी इस प्रतिज्ञा को सब लोग सत्य जानें कि इस से उलटा काम
कभी न किया जायेगा । (भग:) जो ऐश्वर्यवान् (अर्यमा) सब जीवों के पाप पुण्य के फलों को
यथावत् देने वाला (सविता) सब जगत् का उत्पन्न करने और सब ऐश्वर्य का देने वाला तथा
(पुरन्धि:) सब जगत् का धरण करने वाला परमेश्वर है । वही हमारे दोनों के बीच में साक्षी है तथा
(मह्यं त्वा॰) परमेश्वर और विद्वानों ने मुझ को तेरे लिये और तुझ को मेरे लिये दिया है कि हम दोनों
परस्पर
प्रीति करेंगे, तथा उद्योगी होकर घर का काम अच्छी तरह से करेंगे, और मिथ्याभाषणादि से
बचकर सदा धर्म ही में वर्त्तेंगे । सब जगत् का उपकार करने के लिए सत्यविद्या का प्रचार करेंगे,
और धर्म से पुत्रों को उत्पन्न करके उन को सुशिक्षित करेंगे, इत्यादि प्रतिज्ञा हम र्इश्वर की साक्षी से
करते हैं कि इन नियमों का ठीक ठीक पालन करेंगे । दूसरी स्त्री और दूसरे पुरुष से मन से भी
व्यभिचार न करेंगे । (देवा:) हे विद्वान् लोगो ! तुम भी हमारे साक्षी रहो कि हम दोनों गृहाश्रम के
लिये विवाह करते हैं । फिर स्त्री कहे कि मैं इस पति को छोड़ के मन वचन और कर्म से भी दूसरे
पुरुष को पति न मानूंगी तथा पुरुष भी प्रतिज्ञा करे कि मैं इस के सिवाय दूसरी स्त्री को अपने मन,
कर्म और वचन से कभी न चाहूंगा ।।1।।
(इहैव स्तं) विवाहित स्त्री पुरुषों के लिए परमेश्वर की आज्ञा है कि तुम दोनों गृहाश्रम के शुभ
व्यवहारों में रहो । (मा वियौष्टं) अर्थात् विरोध् करके अलग कभी मत हो, और व्यभिचार भी किसी
प्रकार
का मत करो । ऋतुगामित्व से सन्तानों की उत्पत्ति, उन का पालन और सुशिक्षा, गर्भस्थिति के
पीछे एक वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य और लड़कों को प्रसूता स्त्री का दुग्ध् बहुत दिन न पिलाना, इत्यादि श्रेष्ठ
व्यवहारों से (विश्वमा॰) सौ १०० वा १२५ वर्ष पर्यन्त आयु को सुख से भोगो । (क्रीडन्तौ॰)
अपने घर में आनन्दित होके पुत्र और पौत्रों के साथ नित्य धर्मपूर्वक क्रीड़ा करो । इस से विपरीत
व्यवहार
कभी न करो और सदा मेरी आज्ञा में वर्नमान करो ।।२।।
इत्यादि
विवाहविधयक वेदों में बहुत मन्त्र हैं । उन में से कर्इ एक मन्त्र संस्कारविधि में भी
लिखे हैं, वहां देख लेना ।
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