"मुक्ति विषय "
महर्षि दयानन्द सरस्वती "सत्यार्थ प्रकाश"
भाग- २
प्रश्न---जैसे समुद्र के बीच में मच्छी, कीड़े और आकाश के बीच में
पक्षी आदि घूमते हैं वैसे ही चिदाकाश “ब्रह्म” में सब अन्त:करण घूमते है । वे स्वयं
तो जड़ हैं परन्तु सर्वव्यापक परमात्मा की सना से जैसा कि अग्नि से लोहा वैसे
चेतन हो रहे है । जैसे वे चलते फिरते और आकाश तथा “ब्रह्म” निश्चल है वैसे जीव
को “ब्रह्म” मानने में कोर्इ दोष नहीं आता ?
उत्तर---यह भी तुम्हारा दृष्टान्त सत्य नहीं क्योंकि जो सर्वव्यापी “ब्रह्म”
अन्त:करणों में प्रकाशमान होकर जीव होता है तो सर्वज्ञादि गुण उस में होते हैं
वा नहीं? जो कहो कि आवरण होने से सर्वज्ञता नहीं होती तो कहो कि “ब्रह्म” आवृन
और खण्डित है वा अखण्डित? जो कहो कि अखण्डित है तो बीच में कोर्इ पड़दा
नहीं डाल सकता जब पड़दा नहीं तो सर्वज्ञता क्यों नहीं? जो कहो कि अपने स्वरूप
को भूलकर अन्त:करण के साथ चलता सा है स्वरूप से नहीं? जब स्वयं नहीं
चलता तो अन्त:करण जितना----जितना पूर्व प्राप्त देश छोड़ता और आगे----आगे
जहां----जहां सरकता जायेगा वहां----वहां का “ब्रह्म” भ्रान्त अज्ञानी होता जायेगा और
जितना----जितना छूटता जायेगा वहां----वहां ज्ञानी, पवित्र और मुक्त होता जायेगा इसी
प्रकार सर्वत्र सृष्टि के “ब्रह्म” को अन्त:करण बिगाड़ा करेंगे और बन्ध् मुक्ति भी
क्षण----क्षण में हुआ करेगी तुम्हारे कहे प्रमाणे जो वैसा होता तो किसी जीव को
पूर्व देखे सुने का स्मरण न होता क्योंकि जिस “ब्रह्म” ने देखा वह नहीं रहा इसलिये
“ब्रह्म” जीव, जीव “ब्रह्म” एक कभी नहीं होता सदा पृथक----पृथक है ।
प्रश्न---यह सब अध्यारोपमात्र है अर्थात् अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का
स्थापन करना अध्यारोप कहाता है वैसे ही “ब्रह्म” वस्तु में सब जगत् और इस के
व्यवहार का अध्यारोप करने से जिज्ञासु को बोध् कराना होता है वास्तव में सब
“ब्रह्म” ही है---अध्यारोप का करने वाला कौन है?
उत्तर---जीव ।
प्रश्न---जीव किस को कहते हो?
उत्तर---अन्त:करणावच्छिन्न चेतन को ।
प्रश्न---अन्त:करणावच्छिन्न चेतन दूसरा है वा वही “ब्रह्म”?
उत्तर---वही “ब्रह्म” है
प्रश्न---तो क्या “ब्रह्म” ही ने अपने में जगत् की झूठी कल्पना कर ली?
उत्तर---हो, “ब्रह्म” की इससे क्या हानि ।
प्रश्न---जो मिथ्या कल्पना करता है क्या वह भू!फठा नहीं होता?
उत्तर---नहीं क्योंकि जो मन, वाणी से कल्पित वा कथित है वह सब
झूठा है
प्रश्न---फिर मन वाणी से झूठी कल्पना करने और मिथ्या बोलने वाला
“ब्रह्म” कल्पित और मिथ्यावादी हुआ वा नहीं?
उत्तर---हो, हम को इष्टापत्ति है ।
वाह रे झूठे वेदान्तियो! तुम ने सत्यस्वरूप, सत्यकाम, सत्यसटल्प परमात्मा
को मिथ्याचारी कर दिया क्या यह तुम्हारी दुर्गति का कारण नहीं है? किस उपनिषत्,
सूत्र वा वेद में लिखा है कि परमेश्वर मिथ्यासंकल्प और मिथ्यावादी है? क्योंकि
जैसे किसी चोर ने कोतवाल को दण्ड दिया अर्थात् ‘उलटि चोर कोतवाल को दण्डे’
इस कहानी के सदृश तुम्हारी बात हुई यह तो बात उचित है कि कोतवाल चोर
को दण्डे परन्तु यह बात विपरीत है कि चोर कोतवाल को दण्ड देवे वैसे ही तुम
मिथ्या संकल्प और मिथ्यावादी होकर वही अपना दोष “ब्रह्म” में व्यर्थ लगाते हो
जो “ब्रह्म” मिथ्याज्ञानी, मिथ्यावादी, मिथ्याकारी होवे तो सब अनन्त “ब्रह्म” वैसा
ही हो जाय क्योंकि वह एकरस है सत्यस्वरूप, सत्यमानी, सत्यवादी और सत्यकारी
है ये सब दोष तुम्हारे हैं “ब्रह्म” के नहीं
जिस को तुम विद्या कहते हो वह अविद्या है और तुम्हारा अध्यारोप भी
मिथ्या है क्योंकि आप “ब्रह्म” न होकर अपने को “ब्रह्म” और “ब्रह्म” को जीव मानना
यह मिथ्या ज्ञान नहीं तो क्या है? जो सर्वव्यापक है वह परिच्छिन्न न होने से अज्ञान
और बन्ध् में कभी नहीं गिरता क्योंकि अज्ञान परिच्छिन्न एकदेशी अल्प अल्पज्ञ
जीव में होता है सर्वज्ञ सर्वव्यापी “ब्रह्म” में नहीं
अब मुक्ति बन्ध् का वर्णन करते हैं
प्रश्न---मुक्ति किसको कहते हैं?
उत्तर---‘मुन्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्ति:’ जिस में छूट
जाना हो उस का नाम मुक्ति है
प्रश्न---किस से छूट जाना?
उत्तर---जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं ।
प्रश्न---किस से छूटने की इच्छा करते हैं?
उत्तर---जिस से छूटना चाहते हैं?
प्रश्न---किस से छूटना चाहते है ।
उत्तर---दु:ख से
प्रश्न---छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?
उत्तर---सुख को प्राप्त होते और “ब्रह्म” में रहते है ।
प्रश्न---मुक्ति और बन्ध् किन----किन बातों से होता है?
उत्तर---परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसगं, कुसंस्कार,
बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय,
धर्म की वृद्धिकरने पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना
अर्थात् योगाभ्यास करने विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति
करने सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित
न्यायधर्मानुसार ही करे इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत र्इश्वराज्ञाभगं
करने आदि काम से बन्ध् होता है ।
प्रश्न---मुक्ति में जीव का लय होता है वा विद्यमान रहता है ?
उत्तर---विद्यमान रहता है।
प्रश्न---कहां रहता है?
उत्तर---”ब्रह्म” में ।
प्रश्न---”ब्रह्म” कहां है और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता है वा
स्वेच्छाचारी होकर सर्वत्र विचरता है?
उत्तर---जो “ब्रह्म” सर्वत्र पूर्ण है उसी में मुक्त जीव अव्याहतगति अर्थात्
उस को कहीं रुकावट नहीं विज्ञान, आनन्दपूर्वक स्वतन्त्रा विचरता है ।
प्रश्न---मुक्त जीव का स्थूल शरीर रहता है वा नहीं?
उत्तर---नहीं रहता ।
प्रश्न---फिर वह सुख और आनन्द भोग कैसे करता है?
उत्तर---उस के सत्यसटल्पादि स्वाभाविक गुण सामर्थ्य सब रहते हैंभौतिक सगं नहीं रहता जैसे--------
नृण्वन् श्रोत्रां भवति, स्पर्शयन् त्वग्भवति, पश्यन् चक्षुर्भवति, रसयन्
रसना भवति, जिघ्रन् घ्राणं भवति, मन्वानो मनो भवति, बोध्यन् बुद्धिर्भवति,
चेतयंश्चित्तम्भवत्यहडं कुर्वाणोअहंकारो भवति ॥
--------शतपथ कांन नज
मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते
किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श
करना चाहता है तब त्वचा, देखने के सटल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध्
के लिये घ्राण, सटल्प विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि
स्मरण करने के लिए चिन और अहटार के अर्थ अहटाररूप अपनी स्वशक्ति से
जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और सटल्पमात्र शरीर होता है जैसे शरीर के
आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है वैसे अपनी शक्ति
से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है
प्रश्न---उस की शक्ति कै प्रकार की और कितनी है?
उत्तर---मुख्य एक प्रकार की शक्ति है परन्तु बल, पराक्रम, आकर्षण,
प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग,
विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गन्ध्ग्रहण तथा
ज्ञान इन नज चौबीस प्रकार के सामर्थ्ययुक्त जीव है । इस से मुक्ति में भी आनन्द
की प्राप्तिरूप भोग करता है
जो मुक्ति में जीव का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और
जो जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं वे तो महामूढ़ हैं क्योंकि मुक्ति जीव
की यह है कि दु:खों से छूट कर आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनन्त, परमेश्वर में
जीवों का आनन्द में रहना देखो वेदान्त शारीरक सूत्रों में--------
जो बादरि व्यास जी का पिता है वह मुक्ति में जीव का और उस के साथ
मन का भाव मानता है अर्थात् जीव और मन का लय पराशर जी नहीं मानते वैसे
ही--------
भावं जैमिनिर्विकल्पामननात् ॥
और जैमिनि आचार्य मुक्त पुरुष का मन के समान सूक्ष्म शरीर, इन्द्रियां,
प्राण आदि को भी विद्यमान मानते है । अभाव नहीं
द्वादशाहवदुभयविध्ं बादरायणोत: ॥
व्यास मुनि मुक्ति में भाव और अभाव इन दोनों को मानते है । अर्थात् शुद्ध
सामर्थ्ययुक्त जीव मुक्ति में बना रहता है अपवित्रता, पापाचरण, दु:ख, अज्ञानादि
का अभाव मानते है ।
यदा पन्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहु: परमां गतिम् ॥
यह उपनिषत् का वचन है।
जब शुद्ध मनयुक्त पांच ज्ञानेन्द्रिय जीव के साथ रहती हैं और बुद्धिका
निश्चय स्थिर होता है। उस को परमगति अर्थात् मोक्ष कहते है ।
"महर्षि भूषण"
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