वर्णाश्रम क्या हैं---
तत्रा वर्णविषयो मन्त्रो ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्’ इत्युक्तस्तदर्थश्च । तस्यायं शेष:---
वर्णो वृणोते: ।।१।। निरू ॰२ । खं३ ।।
ब्रह्म हि ब्राह्मण: । क्षत्रं हीन्ं: क्षत्रं राजन्य: ।।२।। श कां ५ । अ १ । ब्रा १ ।।
बाहू वै मित्रावरुणौ पुरुषो गर्त: वीर्य वा एतद्राजन्यस्य यद्धाहू
वीर्य वा एतदपाद्य रस: ।। शत कां ५ । अ ४ । ब्रा ३ ।।
इषवो वै दिद्यव: ।।ल।। शत॰ कां ५। अ ४। ब्रा ४।।
भाषार्थ---अब वर्णाश्रमविषय लिखा जाता है । इस में यह विशेष जानना चाहिए कि प्रथम
मनुष्य जाति सब की एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है, इस विषय का प्रमाण सृष्टिविषय में लिख
दिया है। तथा ‘ब्राह्मणोण्स्य मुखमासीत्’ यह मन्त्र सृष्टिविषय में लिख चुके हैं, वर्णों के प्रतिपादन
करने वाले वेदमन्त्रों की जो व्याख्या ब्राह्मण और निरुक्तादि ग्रन्थों में लिखी है, वह कुछ यहां भी
लिखते हैं---
मनुष्य जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं । वेदरीति से इन के दो भेद
हैं---एक आर्य और दूसरा दस्यु । इस विषय में यह प्रमाण है कि ‘विजानीह्य्यन्ये च दस्यवो॰’
अर्थात् इस मन्त्र से परमेश्वर उपदेश करता है, कि हे जीव ! तू आर्य अर्थात् श्रेष्ठ दस्यु अर्थात्
दुष्टस्वभावयुक्त डाकू आदि नामों से प्रसिद्ध मनुष्यों के ये दो भेद जान ले । तथा ‘उत शूद्रे उत आर्ये’
इस मन्त्र से भी आर्य ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और अनार्य अर्थात् अनाड़ी जो कि शूद्र कहाते हैं, ये दो
भेद जाने गये हैं । तथा ‘असुर्या नाम ते लोका॰’ इस मन्त्र से भी देव और असुर अर्थात् विद्वान् और
मूर्ख ये दो ही भेद जाने जाते हैं । और इन्हीं दोनों के विरोध् को देवासुर संग्राम कहते हैं । ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुण कर्मो से किये गये हैं ।
(वर्णो॰) इन का नाम वर्ण इसलिए है कि जैसे जिस के गुण कर्म हों, वैसा ही उस को
अधिकार देना चाहिए । (ब्रह्म हि ब्रा॰) ब्रह्म अर्थात् उत्तम कर्म करने से उत्तम विद्वान् ब्राह्मण वर्ण होता
है । (क्षत्रं हि॰) परम ऐश्वर्य (बाहू॰) बल वीर्य के होने से मनुष्य क्षत्रिय वर्ण होता है, जैसा कि
राजधर्म में लिख आये हैं ।।१-३।।
अत्रा ब्रह्मचर्याश्रमे प्रमाणम्---
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भ मन्त: ।
तं रात्रीस्तिवत्त उदरे विभर्त्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देव: ।।१।।
इयं समित्पृथिवी द्यौर्व्दीतीयोतान्तरिक्षं समिध पृणाति ।
ब्रह्मचारी समिधा मेखालया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्त्ति ।।२।।
पूर्वों जातो ब्रह्मणो ब्रह्मचारी धंर्म वसानस्तपस दतिष्ठत ।
तस्माज्जा्ते ब्रह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवश्च सर्वे अमृतेन साकम ।।३।।
अथर्व॰ का॰ ११ ।अनु॰ ३ । व॰५ । मं॰ ३ । ४ । ५ ।
भाषार्थ---अब आगे चार आश्रमों का वर्णन किया जाता है । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और
संन्यास ये चार आश्रम कहाते हैं । इन में से पांच वा आठ वर्ष की उमर से अड़तालीस वर्ष पर्यन्त
प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम का समय है । इसके विभाग पितृयज्ञ में कहेंगे । वह सुशिक्षा और सत्यविद्यादि
गुण ग्रहण करने के लिये होता है ।
दूसरा गृहाश्रम जो कि उत्तम गुणों के प्रचार और श्रेष्ठ पदार्थों
की उन्नति से सन्तानों की उत्पत्ति और उन को सुशिक्षित करने के लिए किया जाता है । मनुष्य जाति सब की एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है, इस विषय का प्रमाण सृष्टिविषय में लिख
दिया है। तथा ‘ब्राह्मणोण्स्य मुखमासीत्’ यह मन्त्र सृष्टिविषय में लिख चुके हैं, वर्णों के प्रतिपादन
करने वाले वेदमन्त्रों की जो व्याख्या ब्राह्मण और निरुक्तादि ग्रन्थों में लिखी है, वह कुछ यहां भी
लिखते हैं---
मनुष्य जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं । वेदरीति से इन के दो भेद
हैं---एक आर्य और दूसरा दस्यु । इस विषय में यह प्रमाण है कि ‘विजानीह्य्यन्ये च दस्यवो॰’
अर्थात् इस मन्त्र से परमेश्वर उपदेश करता है, कि हे जीव ! तू आर्य अर्थात् श्रेष्ठ दस्यु अर्थात्
दुष्टस्वभावयुक्त डाकू आदि नामों से प्रसिद्ध मनुष्यों के ये दो भेद जान ले । तथा ‘उत शूद्रे उत आर्ये’
इस मन्त्र से भी आर्य ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और अनार्य अर्थात् अनाड़ी जो कि शूद्र कहाते हैं, ये दो
भेद जाने गये हैं । तथा ‘असुर्या नाम ते लोका॰’ इस मन्त्र से भी देव और असुर अर्थात् विद्वान् और
मूर्ख ये दो ही भेद जाने जाते हैं । और इन्हीं दोनों के विरोध् को देवासुर संग्राम कहते हैं । ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुण कर्मो से किये गये हैं ।
(वर्णो॰) इन का नाम वर्ण इसलिए है कि जैसे जिस के गुण कर्म हों, वैसा ही उस को
अधिकार देना चाहिए । (ब्रह्म हि ब्रा॰) ब्रह्म अर्थात् उत्तम कर्म करने से उत्तम विद्वान् ब्राह्मण वर्ण होता
है । (क्षत्रं हि॰) परम ऐश्वर्य (बाहू॰) बल वीर्य के होने से मनुष्य क्षत्रिय वर्ण होता है, जैसा कि
राजधर्म में लिख आये हैं ।।१-३।।
अत्रा ब्रह्मचर्याश्रमे प्रमाणम्---
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भ मन्त: ।
तं रात्रीस्तिवत्त उदरे विभर्त्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देव: ।।१।।
इयं समित्पृथिवी द्यौर्व्दीतीयोतान्तरिक्षं समिध पृणाति ।
ब्रह्मचारी समिधा मेखालया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्त्ति ।।२।।
पूर्वों जातो ब्रह्मणो ब्रह्मचारी धंर्म वसानस्तपस दतिष्ठत ।
तस्माज्जा्ते ब्रह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवश्च सर्वे अमृतेन साकम ।।३।।
अथर्व॰ का॰ ११ ।अनु॰ ३ । व॰५ । मं॰ ३ । ४ । ५ ।
भाषार्थ---अब आगे चार आश्रमों का वर्णन किया जाता है । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और
संन्यास ये चार आश्रम कहाते हैं । इन में से पांच वा आठ वर्ष की उमर से अड़तालीस वर्ष पर्यन्त
प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम का समय है । इसके विभाग पितृयज्ञ में कहेंगे । वह सुशिक्षा और सत्यविद्यादि
गुण ग्रहण करने के लिये होता है ।
दूसरा गृहाश्रम जो कि उत्तम गुणों के प्रचार और श्रेष्ठ पदार्थों
तीसरा वानप्रस्थ जिस से ब्रह्मविद्यादि साक्षात् साधन करने के लिए एकान्त में परमेश्वर का सेवन किया जाता
है ।
चौथा संन्यास जो कि परमेश्वर अर्थात् मोक्षसुख की प्राप्ति और सत्योपदेश से सब संसार के
उपकार के अर्थ किया जाता है ।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थो की प्राप्ति के लिए इन चार आश्रमों का सेवन करना
सब मनुष्यों को उचित है । इनमें से प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम जो कि सब आश्रमों का मूल है, उस के
ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम और बिगड़ने से नष्ट हो जाते हैं । इस आश्रम के विषय में
वेदों के अनेक प्रमाण हैं, उन में से कुछ यहां भी लिखते हैं---
(आचार्य उ॰) अर्थात् जो गर्भ में बस के माता और पिता के सम्बन्ध् से मनुष्य का जन्म होता
है, वह प्रथम जन्म कहाता है । और दूसरा यह है कि जिस में आचार्य पिता और विद्या माता होती
है, इस दूसरे जन्म के न होने से मनुष्य को मनुष्यपन नहीं प्राप्त होता । इसलिये उस को प्राप्त होना
मनुष्यों को अवश्य चाहिए । जब आठवें वर्ष पाठशाला में जाकर आचार्य अर्थात् विद्या पढ़ानेवाले
के समीप रहते हैं, तभी से उन का नाम ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी हो जाता है । क्योंकि वे ब्रह्म वेद
और परमेश्वर के विचार में तत्पर होते हैं । उन को आचार्य तीन रात्रिपर्यन्त गर्भ में रखता है । अर्थात्
र्इश्वर की उपासना, धर्म, परस्पर विद्या के पढ़ने और विचारने की युक्ति आदि जो मुख्य-मुख्य बातें
हैं, वे सब तीन दिन में उन को सिखार्इ जाती हैं । तीन दिन के उपरान्त उन को देखने के लिये
अध्यापक अर्थात् विद्वान् लोग आते हैं ।।१।।
(इयं समित्॰) फिर उस दिन होम करके उन को प्रतिज्ञा कराते हैं, कि जो ब्रह्मचारी पृथिवी,
सूर्य और अन्तरिक्ष इन तीनों प्रकार की विद्याओं को पालन और पूर्ण करने की इच्छा करता है, सो
इन समिधओं से पुरुषार्थ करके सब लोकों को धर्मानुष्ठान से पूर्ण आनन्दित कर देता है ।।२।।
(पूर्वो जातो ब्र॰) जो ब्रह्मचारी पूर्व पढ़ के ब्राह्मण होता है, वह धर्मानुष्ठान से अत्यन्त पुरुषार्थी होकर
सब मनुष्यों का कल्याण करता है (ब्रह्म ज्येष्ठं॰) फिर उस पूर्ण विद्वान् ब्राह्मण को, जो कि अमृत अर्थात्
परमेश्वर की पूर्ण भक्ति और धर्मानुष्ठान से युक्त होता है, देखने के लिए सब विद्वान् आते हैं ।।३।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें