मंगलवार, 27 मई 2014

"मुक्ति विषय " महर्षि दयानन्द सरस्वत "सत्यार्थ प्रकाश"

"मुक्ति विषय " महर्षि दयानन्द सरस्वत "सत्यार्थ प्रकाश"

विद्यां चाविपिद्यां च यस्तद्वेदोभयंसह ।

अविपिद्यया मृत्युं तीर्त्र्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।

--------यजु: ४०.१४

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह
अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष
को प्राप्त होता है अविद्या का लक्षण--------

अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥
यह योगसूत्र का वचन है। साधनपाद सू॰५


जो अनित्य संसार और देहादि में नित्य अर्थात् जो कार्य जगत् देखा, सुना
जाता है सदा रहेगा, सदा से है और योगबल से यही देवों का शरीर सदा रहता
है वैसी विपरीत बुद्धि होना अविद्या का प्रथम भाग है |

अशुचि अर्थात् मलमय स्त्रयादि के शरीर और मिथ्याभाषण, चोरी आदि
अपवित्र में पवित्र बुद्धि दूसरा अत्यन्त विषयसेवन रूप दु:ख में सुख बुद्धि आदि,
तीसरा--------अनात्मा में आत्मबुद्धि करना अविद्या का चौथा भाग है यह चार प्रकार
का विपरीत ज्ञान अविद्या कहाती है
इस के विपरीत अर्थात् अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र
में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दु:ख में दु:ख, सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा
और आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना विद्या है अर्थात् ‘वेत्ति यथावत तत्त्वं
पदार्थस्वरूपं यया सा विद्या । यया तन्वस्वरूपं न जानाति भ्रमादन्यस्मिन्नन्यन्नि- श्चिनोति साविद्या ।’ जिस से पदार्विद्यां चाविपिद्यां च यस्तद्वेदोभय§सह ।
अविपिद्यया मृत्युं तीर्त्र्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
--------यजु: ४०.१४अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥

यह योगसूत्र का वचन है। साधनपाद सू॰५यथो का यथार्थ स्वरूप बोध होवे वह विद्या
और जिस से तत्त्व स्वरूप न जान पड़े अन्य में अन्य बुद्धिहोवे वह अविद्या कहाती
है अर्थात् कर्म और उपासना अविद्या इसलिये है कि यह बाह्य और अन्तर क्रियाविशेष
नाम है ज्ञानविशेष नहीं इसी से मन्त्र में कहा है कि विना शुद्ध कर्म और परमेश्वर
की उपासना के मृत्यु दु:ख से पार कोर्इ नहीं होता अर्थात् पवित्र कर्म, पवित्रोपासना
और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म पाषाणमून्र्यादि की
उपासना और मिथ्याज्ञान से बन्ध होता है ।
कोर्इ भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म, उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता
इसलिये धर्मयुक्त सत्यभाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़
देना ही मुक्ति का साधन है ।

प्रश्न---मुक्ति किस को प्राप्त नहीं होती?
उत्तर---जो बद्ध है !

प्रश्न---बद्ध कौन है?
उत्तर---जो अधर्म अज्ञान में फंसा हुआ जीव है ।

प्रश्न---बन्ध और मोक्ष स्वभाव से होता है वा निमित्त से?
उत्तर---निमित्त से क्योंकि जो स्वभाव से होता तो बन्ध और मुक्ति की
निवृत्ति कभी नहीं होती

प्रश्न---न निरोधे न चोत्पनिर्त्त बद्धो न च साधक:
न मुमुक्षुर्न वै मुक्तिरित्येषा परमार्थता
यह श्लोक माण्डूक्योपनिषत् पर है।
जीव “ब्रह्म” होने से वस्तुत: जीव का निरोध अर्थात् न कभी आवरण में
आया, न जन्म लेता, न बन्ध है और न साधक अर्थात् न कुछ साधना करनेहारा
है न छूटने की इच्छा करता और न इस की कभी मुक्ति है क्योंकि जब परमार्थ
से बन्ध ही नहीं हुआ तो मुक्ति क्या ?
उत्तर---यह नवीन वेदान्तियों का कहना सत्य नहीं क्योंकि जीव का
स्वरूप अल्प होने से आवरण में आता, शरीर के साथ प्रकट होने रूप जन्म लेता,
पापरूप कर्मो के फल भोगरूप बन्धन में फंसता, उस के छुड़ाने का साधन करता,
दु:ख से छूटने की इच्छा करता और दु:खों से छूट कर परमानन्द परमेश्वर को प्राप्त
होकर मुक्ति को भी भोगता है

प्रश्न---ये सब धर्म देह और अन्त:करण के है । जीव के नहीं क्योंकि
जीव तो पाप पुण्य से रहित साक्षीमात्र है शीतोष्णादि शरीरादि के धर्म हैं आत्मा
निर्लेप है

उत्तर---देह और अन्त:करण जड़ हैं उन को शीतोष्ण प्राप्ति और भोग
नहीं है जैसे पत्थर को शीत और उष्ण का भान वा भोग नहीं है जो चेतन मनुष्यादि
प्राणी उसका स्पर्श करता है उसी को शीत उष्ण का भान और भोग होता है वैसे
प्राण भी जड़ है । न उन को भूख न पिपासा किन्तु प्राण वाले जीव को क्षुध, तृषा
लगती है वैसे ही मन भी जड़ है न उस को हर्ष, न शोक हो सकता है किन्तु
मन से हर्ष, शोक, दु:ख, सुख का भोग जीव करता है जैसे बहिष्करण श्रोत्रदि
इन्द्रियों से अच्छे बुरे शब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी दु:खी होता है
वैसे ही अन्त:करण अर्थात् मन, बुद्धि चित्त, अहंकार से सकल्प, विकल्प, निश्चय,
स्मरण और अभिमान का करने वाला दण्ड और मान्य का भागी होता है
जैसे तलवार से मारने वाला दण्डनीय होता है तलवार नहीं होती वैसे ही
देहेन्द्रिय अन्त:करण और प्राणरूप साधनों से अच्छे बुरे कर्मो का कर्त्ता जीव सुख
दु:ख का भोक्ता है जीव कर्मो का साक्षी नहीं, किन्तु कर्त्ता भोक्ता है कर्मो का
साक्षी तो एक अद्वितीय परमात्मा है जो कर्म करने वाला जीव है वही कर्मो में
लिप्त होता है वह र्इश्वर साक्षी नहीं ।

प्रश्न---जीव “ब्रह्म” का प्रतिबिम्ब है जैसे दर्पण के टूटने पूफटने से बिम्ब
की कुछ हानि नहीं होती, इसी प्रकार अन्त:करण में “ब्रह्म” का प्रतिबिम्ब जीव तब
तक है कि जब तक वह अन्त:करणोपाधि है जब अन्त:करण नष्ट हो गया तब
जीव मुक्त है?

उत्तर---यह बालकपन की बात है क्योंकि प्रतिबिम्ब साकार का साकार
में होता है जैसे मुख और दर्पण आकार वाले हैं और पृथक भी हैं जो पृथक
न हो तो भी प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता “ब्रह्म” निराकार, सर्वव्यापक होने से उस का
प्रतिबिम्ब ही नहीं हो सकता ।

प्रश्न---देखो! गम्भीर स्वच्छ जल में निराकार और व्यापक आकाश का
आभास पड़ता है इसी प्रकार स्वच्छ अन्त:करण में परमात्मा का आभास है इसलिये
इस को चिदाभास कहते है ?

उत्तर---यह बालबुद्धिका मिथ्या प्रलाप है क्योंकि आकाश दृश्य नहीं
तो उस को आंख से कोर्इ भी क्योंकर देख सकता है ।
प्रश्न---यह जो उफपर को नीला और धुंधलापन दीखता है वह आकाश
नीला दीखता है वा नहीं?
उत्तर---नहीं ।

प्रश्न---तो वह क्या है?
उत्तर---अलग----अलग पृथिवी, जल और अग्नि के त्रसरेणु दीखते है ।
उस में जो नीलता दीखती है वह अधिक जल जो कि वर्षता है सो वही नील
जो धुंधलापन दीखता है वह पृथिवी से धूली उड़कर वायु में घूमती है वह दीखती,
और उसी का प्रतिबिम्ब जल वा दर्पण में दीखता है आकाश का कभी नहीं ।

प्रश्न---जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और महदाकाश के भेद
व्यवहार में होते हैं वैसे ही “ब्रह्म” के ब्रह्मांड और अन्त:करण उपाधि के भेद से र्इश्वर
और जीव नाम होता है जब घटादि नष्ट हो जाते हैं तब महाकाश ही कहाता है

उत्तर---यह भी बात अविद्वानों की है क्योंकि आकाश कभी छिन्न----भिन्न
नहीं होता व्यवहार में भी ‘ घड़ा लाओ’ इत्यादि व्यवहार होते है । कोर्इ नहीं कहता
कि घड़े का आकाश लाओ इसलिये यह बात ठीक नहीं ।

प्रश्न---जैसे समुद्र के बीच में मच्छी, कीड़े और आकाश के बीच में
पक्षी आदि घूमते हैं वैसे ही चिदाकाश “ब्रह्म” में सब अन्त:करण घूमते है । वे स्वयं
तो जड़ हैं परन्तु सर्वव्यापक परमात्मा की सना से जैसा कि अग्नि से लोहा वैसे
चेतन हो रहे है । जैसे वे चलते फिरते और आकाश तथा “ब्रह्म” निश्चल है वैसे जीव
को “ब्रह्म” मानने में कोर्इ दोष नहीं आता?

उत्तर---यह भी तुम्हारा दृष्टान्त सत्य नहीं क्योंकि जो सर्वव्यापी “ब्रह्म”
अन्त:करणों में प्रकाशमान होकर जीव होता है तो सर्वज्ञादि गुण उस में होते हैं
वा नहीं? जो कहो कि आवरण होने से सर्वज्ञता नहीं होती तो कहो कि “ब्रह्म” आवृन
और खण्डित है वा अखण्डित? जो कहो कि अखण्डित है तो बीच में कोर्इ पड़दा
नहीं डाल सकता जब पड़दा नहीं तो सर्वज्ञता क्यों नहीं? जो कहो कि अपने स्वरूप
को भूलकर अन्त:करण के साथ चलता सा है स्वरूप से नहीं? जब स्वयं नहीं
चलता तो अन्त:करण जितना----जितना पूर्व प्राप्त देश छोड़ता और आगे----आगे
जहां----जहां सरकता जायेगा वहां----वहां का “ब्रह्म” भ्रान्त अज्ञानी होता जायेगा और
जितना----जितना छूटता जायेगा वहां----वहां ज्ञानी, पवित्र और मुक्त होता जायेगा इसी
प्रकार सर्वत्र सृष्टि के “ब्रह्म” को अन्त:करण बिगाड़ा करेंगे और बन्ध् मुक्ति भी
क्षण----क्षण में हुआ करेगी तुम्हारे कहे प्रमाणे जो वैसा होता तो किसी जीव को
पूर्व देखे सुने का स्मरण न होता क्योंकि जिस “ब्रह्म” ने देखा वह नहीं रहा इसलिये
“ब्रह्म” जीव, जीव “ब्रह्म” एक कभी नहीं होता सदा पृथक----पृथक है||

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