""सत्यार्थ प्रकाश""
क्या ब्रह्म और जीव एक हैं--------------
प्रश्न----ब्रह्म और जीव जुदे हैं वा एक?
उत्तर----अलग-अलग है ।
प्रश्न----जो पृथक-पृथक हैं तो--
प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ १.॥ ऐतरेय३.५.३
अहं ब्राह्मास्मि ॥ २ ॥ शतपत४.३.२.२१
तत्वमसि ॥ ३ ॥ छां॰६.८.७
और अयमात्मा ब्रह्म ॥ ४ ॥ शतपथ १४.४.५.१४
वेदों के इन महावाक्यों का अर्थ क्या है?
उत्तर----ये वेदवाक्य ही नहीं हैं, किन्तु ब्राह्मण- ग्रन्थों के वचन हैं, और
इन का नाम ‘महावाक्य’ कहीं सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा । अर्थात् ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान-
स्वरूप है।।१ ॥
=========================
अहं ब्राह्मास्मि ॥ २ ॥ शतपत४.३.२.२१
(अहम) मैं (ब्रह्म) अर्थात् ब्रह्मस्थ (अस्मि) हूं– यहां तात्स्थ्योपाधि है , जैसे ‘मन्चा: वेशन्ति’ मचान पुकारते है । मचान जड़ हैं, उनमें पुकारने का सामर्थ्य
नहीं, इसलिये मन्चस्थ मनुष्य पुकारते है । इसी प्रकार यहां भी जानना ।
कोर्इ कहै कि ब्रह्मस्थ सब पदार्थ हैं पुन: जीव को ब्रह्मस्थ कहने में क्या
विशेष है? इस का उत्तर यह है कि सब पदार्थ ब्रह्मस्थ हैं परन्तु जैसा साधर्म्ययुक्त
निकटस्थ जीव है वैसा अन्य नहीं, और जीव को ब्रह्म का ज्ञान और मुक्ति
में वह ब्रह्म के साक्षात्सम्बन्ध् में रहता है , इसलिये जीव को ब्रह्म के साथ ‘तात्स्थ्य’
वा ‘तत्सहचरितो-पाधि’ अर्थात् ब्रह्म का सहचारी जीव है , इस से जीव और ब्रह्म एक
नहीं ।
जैसे कोर्इ किसी से कहै कि मैं और यह एक हैं अर्थात् अविरोधी है ।
क्या ब्रह्म और जीव एक हैं--------------
प्रश्न----ब्रह्म और जीव जुदे हैं वा एक?
उत्तर----अलग-अलग है ।
प्रश्न----जो पृथक-पृथक हैं तो--
प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ १.॥ ऐतरेय३.५.३
अहं ब्राह्मास्मि ॥ २ ॥ शतपत४.३.२.२१
तत्वमसि ॥ ३ ॥ छां॰६.८.७
और अयमात्मा ब्रह्म ॥ ४ ॥ शतपथ १४.४.५.१४
वेदों के इन महावाक्यों का अर्थ क्या है?
उत्तर----ये वेदवाक्य ही नहीं हैं, किन्तु ब्राह्मण- ग्रन्थों के वचन हैं, और
इन का नाम ‘महावाक्य’ कहीं सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा । अर्थात् ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान-
स्वरूप है।।१ ॥
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अहं ब्राह्मास्मि ॥ २ ॥ शतपत४.३.२.२१
(अहम) मैं (ब्रह्म) अर्थात् ब्रह्मस्थ (अस्मि) हूं– यहां तात्स्थ्योपाधि है , जैसे ‘मन्चा: वेशन्ति’ मचान पुकारते है । मचान जड़ हैं, उनमें पुकारने का सामर्थ्य
नहीं, इसलिये मन्चस्थ मनुष्य पुकारते है । इसी प्रकार यहां भी जानना ।
कोर्इ कहै कि ब्रह्मस्थ सब पदार्थ हैं पुन: जीव को ब्रह्मस्थ कहने में क्या
विशेष है? इस का उत्तर यह है कि सब पदार्थ ब्रह्मस्थ हैं परन्तु जैसा साधर्म्ययुक्त
निकटस्थ जीव है वैसा अन्य नहीं, और जीव को ब्रह्म का ज्ञान और मुक्ति
में वह ब्रह्म के साक्षात्सम्बन्ध् में रहता है , इसलिये जीव को ब्रह्म के साथ ‘तात्स्थ्य’
वा ‘तत्सहचरितो-पाधि’ अर्थात् ब्रह्म का सहचारी जीव है , इस से जीव और ब्रह्म एक
नहीं ।
जैसे कोर्इ किसी से कहै कि मैं और यह एक हैं अर्थात् अविरोधी है ।
वैसे जो जीव समाधिस्थ परमेश्वर में प्रेमबद्ध होकर निमग्न होता है, वह कह सकता
है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी एक अवकाशस्थ है । जो जीव परमेश्वर
के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव करता है वही साधर्म्य
से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है । ॥२॥
है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी एक अवकाशस्थ है । जो जीव परमेश्वर
के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव करता है वही साधर्म्य
से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है । ॥२॥
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