रविवार, 25 मई 2014

संस्कारों का महत्व------ " संस्कार विधि "

संस्कारों का महत्व------ " संस्कार विधि "
"महर्षि दयानन्द सरस्वती"
 

मानव-जीवन की उन्नति में संस्कारों का विशिष्ट महत्व है।
मानव की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के लिए जन्म
से लेकर मृत्युपर्यन्त भिन्न-भिन्न समय पर संस्कारों की व्यवस्था प्राचीन
ऋषि-मुनियों ने बहुत ही सुन्दर ढंग से की है । संस्कारों से ही मानव
को द्विज बनने का अधिकार मिलता है । महर्षिमनु ने इस विषय में
बहुत ही सत्य लिखा है ।

 

(क) वैदिकै: कर्मभि: पुण्यैर्निषेकादिर्व्दिजन्मनाम् ।
कार्य: शरीरसंस्कार: पावन: प्रेत्य चेह च ।।
मनु॰ २ । २६

अर्थ द्विजों के गर्भाधनादि संस्कार वैदिक पुण्य कर्मो के द्वारा
सम्पन्न होने चाहिए । क्योंकि संस्कार इस लोक तथा परलोक में पवित्र
करने वाले हैं ।
 

(ख) गार्भैंर्होमैर्जातकर्मचौडमौ×जीनिबन्धनै: ।
बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते ।।
मनु॰२ । २७

अर्थ गर्भ सम्बन्धी हवन (गर्भाधन, पुंसवन तथा सीमान्तोन्नयन-
संस्कार) जातकर्म, चूडाकर्म और उपनयन संस्कारों के द्वारा द्विजों के
गर्भ एवं वीर्य-सम्बन्धी दोष दूर हो जाते हैं ।
इस प्रकार मनु जी का संस्कारों के विषय में स्पष्ट निर्देश है
कि माता-पिता के वीर्य एवं गर्भाशय के दोषों को गर्भाधनादि संस्कारों
से दूर किया जाता है । अत: संस्कार शरीरादि की शुद्धि करते हैं ।
इससे अगले श्लोक (मनु॰ २ ।२८ ) में तो लिखा है कि यज्ञ, व्रतादि
से मानवशरीर व आत्मा को ब्रह्मप्राप्ति के योग्य बनाया जाता है ।
महर्षिदयानन्द ने संस्कारों को परमोपयोगी समझकर ही प्राचीन
ऋषि-मुनियों की पण्ति का अनुसरण करके संस्कारविधि की रचना
की है। उस में महर्षिने संस्कारों का 

महत्व इस प्रकार बताया है-------
 

(क) ‘जिन करके शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं।
इसलिए संस्कारों का करना सब मनुष्यों को अति उचित है।’ (संस्कारविधि भूमिका )
 

(ख) संस्कारैस्संस्कृतं यद्यन्मेध्यमत्र तदुच्यते ।
असंस्कृतं तु यल्लोके तदमेध्यं प्रकीत्र्यते ।।४।।
अत: संस्कारकरणे क्रियतामुद्यमो बुधै: ।
शिक्षयौषधिभिर्नित्यं सर्वथा सुखवर्धन: ।।५।।
(संस्कारविधि , पृष्ठ१ )
 

अर्थात् संस्कारों से संस्कृत को पवित्र तथा असंस्कृत को अपवित्र
कहते हैं। अत: शिक्षा तथा ओषधियौ से सुखर्वधक संस्कारों के करने
में बुधिमानों को सदा उद्यम करना चाहिए ।
जीवात्मा अमर तथा नित्य है । जन्म-जन्मान्तरों में उस के साथ
सूक्ष्मशरीर, मुक्तिपर्यन्त रहता है। और यही सूक्ष्मशरीर जन्म-जन्मान्तरों
के संस्कारों या वासनाओं का वाहक होता है । ये संस्कार शुभ तथा
अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । जब जीवात्मा दूसरे शरीर में प्रवेश
करता है, उस को नर्इ परिस्थिति के भी बहुत से शुभाशुभ प्रभाव मिलते
हैं । उनमें बुरे प्रभावों को अभिभूत करने तथा शुभ प्रभावों को उन्नत
कराने के लिए संस्कारों तथा स्वच्छ वातावरण की परमावश्यकता है।
इसलिए महर्षिदयानन्द ने माता-पिता को सचेत करते हुए लिखा है
                     ‘‘माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधन के पूर्व,
ममय और पश्चात् मादक द्रव्य मद्य, दुर्गन्ध्, रूक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थो
को छोड़ के जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धिपराक्रम और सुशीलता
से सभ्यता को प्राप्त करें, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपानादि श्रेष्ठ पदार्थो
का सेवन करें, जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम
गुण युक्त हों ।’’ 

 (सत्यार्थप्रकाश, द्वितीय समुल्लास )
अत: माता-पिता के शुद्धाहार व शुद्ध विचारों का बालक पर
बहुत प्रभाव होता है । बालक के पूर्वजन्मस्थ अशुभ संस्कार पवित्र
वातावरण को पाकर वैसे ही ओझल हो जाते हैं, अथवा दग्ध्बीजवत्
प्रसवगुणरहित हो जाते हैं । जैसे पोदीना या धनिया के पौधे वर्षा की
प्रतिकूल परिस्थिति को पाकर मुर्झा जाते हैं, और वर्षा के बाद अनुकूल
परिस्थिति पाकर फिर से प्रस्पुफटित तथा विकसित हो जाते हैं। संस्कारों
में प्रथम तीन संस्कार तो बच्चे के जन्म से पूर्व ही किए जाते हैं, जिन
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का पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता पर ही है । यदि बच्चे के पूर्वजन्म
के संस्कार भी उनम हों, गर्भावस्था में भी माता-पिता के उनम संस्कार
पड़े हों और जन्म के बाद भी उनम वातावरण प्राप्त हो जाए तो ऐसे
बच्चे महाभाग्यशाली होते हैं । महर्षि ने इन के विषय में ही लिखा
है’वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्, जिस के माता और पिता धार्मिक और
विद्वान् हों ।’ 

(सत्यार्थप्रकाश, द्वितीय समुल्लास )
 

स्वयं संस्कार शब्द भी संस्कारों की महत्ता को बताता है। संस्कार
शब्द में सम् उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धतु से ‘घं’ प्रत्यय होता है । और
पाणिनि के ‘सम्पर्युपेभ्य: करोतौ भूषणे’ सूत्र से अलंकार अर्थ में
सुभागम होता है । इसके अनुसार भी संस्कार शब्द का अर्थ है जिस
से शरीरादि सुभूषित हों, उन्हें संस्कार कहते हैं । अथवा भाव में ‘घन्’
प्रत्यय करके---- ‘संस्करणं गुणान्तराधनं संस्कार: ।’ 

 अर्थात् अन्य गुणों के
आधान को संस्कार कहते हैं । संस्कारों से मानव जीवन की सर्वांगीण
उन्नति तो होती ही है, साथ ही पुरुषार्थचतुष्टय की प्राप्ति से मानव
अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने में भी समर्थ हो जाता है । अत:
आर्यो के जीवन में संस्कारों को विशेष महत्व दिया गया है ।

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