“ब्रह्मचर्य आश्रम” पहला आश्रम --
स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहूराचरिक्रत ।।४।।
अथेव॰ का॰११ । अनु॰३ । मं॰६ ॥
अर्थात जो ब्रह्मचारी होता है, वही ज्ञान से प्रकाशित तप और बड़े बड़े केश
श्मश्रुओं से युक्त दीक्षा को प्राप्त होके विद्या को प्राप्त होता है । तथा जो कि शीघ्र ही विद्या को
ग्रहण करके पूर्व समुद्र जो ब्रह्मचर्याश्रम का अनुष्ठान है, उसके पार उतर के समुद्रस्वरूप
गृहाश्रम को प्राप्त होता है और अच्छी प्रकार विद्या का संग्रह करके विचारपूर्वक अपने उपदेश का
सौभाग्य बढ़ाता है ।।४।।
ब्रह्मचारी जनयन् ब्राह्मपो लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम् ।
गर्भो भूत्वामतृस्य योनाविन्द्रो ह भूत्वासुरांस्तर्ह ।।५।।
अथेव॰ का॰११ । अनु॰३ । मं॰७ ॥
अर्थात वह ब्रह्मचारी वेदविद्या को यथार्थ जान के प्राणविद्या, लोकविद्या तथा प्रजापति
परमेश्वर जो कि सब से बड़ा और सब का प्रकाशक है, उस का जानना, इन विद्याओं में गर्भरूप
और इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त हो के असुर अर्थात् मूर्खों की अविद्या का छेदन कर देता है ।।५।।
ब्रह्म चर्येण तपसा राजा राष्टं वि रक्षति ।
आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ।।६।।
अथेव॰ का॰११ । अनु॰३ । मं॰१७ ॥
अर्थात पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के और सत्यधर्म के अनुष्ठान से राजा राज्य करने
को और आचार्य विद्या पढ़ाने को समर्थ होता है । आचार्य उस को कहते हैं कि जो असत्याचार को
छुड़ा के सत्याचार का और अनर्थो को छुड़ा के अर्थो का ग्रहण कराके ज्ञान को बढ़ा देता है ।।६।।
ब्रह्मचर्येण वफन्याल युवानं विन्दते पतिम् ।
अनड्वान् ब्रह्मच्रर्येणाश्वो घासं जिगीषति ।।७।।
अथेव॰ का॰११ । अनु॰३ । मं॰१८ ॥
अर्थात् जब वह कन्या ब्रह्मचर्याश्रम से पूर्ण विद्या पढ़ चुके, तब अपनी
युवावस्था में पूर्ण जवान पुरुष को अपना पति करे । इसी प्रकार पुरुष भी सुशील धर्मात्मा स्त्री के
साथ प्रसन्नता से विवाह करके दोनों परस्पर सुख दु:ख में सहायकारी हों । क्योंकि अनड्वान् अर्थात्
पशु भी जो पूरी जवानी पर्यन्त ब्रह्मचर्य अर्थात् सुनियम में रक्खा जाय तो अत्यन्त बलवान् हो के
निर्बल जीवों को जीत लेता है ।।७।।
ब्रह्मचर्येण तपसा देव मृत्यु पाघ्नत ।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्वंराभरत् ।।८।।
अथेव॰ का॰११ । अनु॰३ । मं॰१९ ॥
अर्थात ब्रह्मचर्य और धर्मानुष्ठान से ही विद्वान् लोग जन्म मरण को जीत के
मोक्षसुख को प्राप्त हो जाते हैं । जैसे इन्द्र अर्थात् सूर्य परमेश्वर के नियम में स्थित हो के सब लोकों
का प्रकाश करने वाला हुआ है, वैसे ही मनुष्य का आत्मा ब्रह्मचर्य से प्रकाशित हो के सब को
प्रकाशित कर देता है । इस से ब्रह्मचर्याश्रम ही सब आश्रमों से उत्तम है ।।
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