बुधवार, 28 मई 2014

दूसरा---- "गृहाश्रम"

दूसरा---- "गृहाश्रम"

 
यद् ग्रामे यदरण्ये यत्सभायां यदिन्द्रिये ।
यदेनश्चकृमा वयमिदं तदव यजामहे स्वाहा ।।९ ।।
यजुर्वेद अ॰३ । मं॰ ४५
अर्थात गृहाश्रमी को उचित है कि जब वह पूर्ण विद्या को पढ़ चुके, तब अपने
तुल्य स्त्री से स्वंयवर करे और वे दोनों यथावत् उन विवाह के नियमों में चलें, जो कि विवाह और
नियोग के प्रकरणों में लिख आये हैं । परन्तु उन से जो विशेष कहना है सो यहां लिखते हैं---गृहस्थ
स्त्री पुरुषों को धर्म उन्नति और ग्रामवासियों के हित के लिये जो जो काम करना है, तथा (यदरण्ये)
वनवासियों के साथ हित और (यत्सभायाम्) सभा के बीच में सत्यविचार और अपने सामर्थ्य से
संसार को सुख देने के लिए, (यदिन्द्रिये) जितेन्द्रियता से ज्ञान की वृद्धिकरनी चाहिए, सो सो सब
काम अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ यथावत् करें । और (यदेनश्चछ॰) पाप करने की बुद्धिको हम
लोग मन, वचन और कर्म से छोड़ कर सर्वथा सब के हितकारी बनें ।।९।।

 
देहि मे ददामि ते नि मे धेहि नि ते दधे ।
निहारं च हरासि मे निहारं निहराणि ते स्वाहा ।।१०।।
यजुर्वेद अ॰३ । मं॰ ५०
अर्थात परमेश्वर उपदेश करता है कि (देहि मे॰) जो सामाजिक नियमों की व्यवस्था के अनुसार ठीक
ठीक चलना है, यही गृहस्थ की परम उन्नति का कारण है । जो वस्तु किसी से लेवें अथवा देवें
सो भी सत्यव्यवहार के साथ करें । (नि मे धेहि, नि ते दधे) अर्थात् मैं तेरे साथ यह काम करूंगा
और तू मेरे साथ ऐसा करना ऐसे व्यवहार को भी सत्यता से करना चाहिए । (निहारं च हरासि मे नि॰) यह वस्तु मेरे लिए तू दे वा तेरे लिए मैं दूंगा, इस को भी यथावत् पूरा करें । अर्थात् किसी
प्रकार का मिथ्या व्यवहार किसी से न करें । इस प्रकार गृहस्थ लोगों के सब व्यवहार सिद्ध होते हैं।
क्योंकि जो गृहस्थ विचारपूर्वक सब के हितकारी काम करते हैं, उन की सदा उन्नति होती है ।।१०।।

 
गृहा मा बिभीत मा वेपध्वमूर्ज बिभ्रत एमसि ।
ऊर्जबिभ्रद्व: सुमना: सुमेध गृहानैमि मनसा मोद मान: ।।११।।
यजुर्वेद अ॰३ । मं॰ ४१
अर्थात (गृहा मा बिभीत॰) हे गृहाश्रम की इच्छा करनेवाले मनुष्य लोगो ! तुम लोग स्वयंवर अर्थात्
इच्छा के अनुकूल विवाह करके गृहाश्रम को प्राप्त हो और उस से डरो व कंपो मत । किन्तु उस
से बल, पराक्रम करनेवाले पदार्थो को प्राप्त होने की इच्छा करो । तथा गृहाश्रमी पुरुषों से ऐसा कहो
कि मैं परमात्मा की कृपा से आप लोगों के बीच पराक्रम, शुद्ध मन, उत्तम बुद्धिऔर आनन्द को
प्राप्त होकर गृहाश्रम करूं ।।११।।

 
येषामध्येति पव्र सन् येषु सौमनसो बहु: ।
गह्रानुपहयामहे ते नो जानन्तु जानत : ।।१२।।
यजुर्वेद अ॰३ । मं॰ ४२
(येषामध्येति॰)अर्थात जिन घरों में वसते हुए मनुष्यों को अधिक आनन्द होता है, उन में वे मनुष्य
अपने सम्बन्धी मित्रा बन्धू और आचार्य आदि का स्मरण करते हैं और उन्हीं लोगों को विवाहादि शुभ
कार्यो में सत्कार से बुलाकर उन से यह इच्छा करते हैं कि ये सब हम को युवावस्थायुक्त और
विवाहादि नियमों में ठीक ठीक प्रतिज्ञा करने वाले जानें अर्थात् हमारे साक्षी हों ।।१२।।

उपहूता इह गाव उपहूता अजावय: ।
 
अथो अन्नस्य कीलाल उपहूते गृहेषु न: ।
क्षेमाय व: शान्त्यै प्रपद्ये शिवं शग्मं शंयोः शंयोः ।।१३।।
यजुर्वेद अ॰३ । मं॰ ४३ ॥
अर्थात (उपहू॰) हे परमेश्वर ! आपकी छपा से हम लोगों को गृहाश्रम में पशु, पृथिवी, विद्या, प्रकाश,
आनन्द, बकरी और भेड़ आदि पदार्थ अच्छी प्रकार से प्राप्त हों तथा हमारे घरों में उत्तम रसयुक्त खाने
पीने के योग्य पदार्थ सदा बने रहें । (व:) यह पद पुरुषव्यत्यय से सिद्ध होता है । हम लोग उक्त
पदार्थो को उन की रक्षा और अपने सुख के लिये प्राप्त हों । फिर उस प्राप्ति से हम को परमार्थ और
संसार का सुख मिले । ‘शंयो:’ यह निघण्टु में प्रतिष्ठा अर्थात् सांसारिक सुख का नाम है ।।१३।।

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