'यम नियम का महत्व'
यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः |
यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन् ॥मनु .४.२०४
यम पांच प्रकार के होते हैं--
तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रंचर्यापरिग्रहा यमा: योगसूत्रा २ । ३०
अर्थात् (अहिसा ) वैरत्याग, (सत्य) सत्य मानना, सत्य बोलना और सत्य
ही करना, (अस्तेय) अर्थात् मन वचन कर्म से चोरीत्याग, (ब्रह्मचर्य) अर्थात्
उपस्थेन्द्रिय का संयम, (अपरिग्रह) अत्यन्त लोलुपता स्वत्वाभिमानरहित होना, इन
पांच यमों का सेवन सदा करें । केवल नियमों का सेवन अर्थात्--
शौचसन्तोषतप:स्वामयायेश्वरप्रणिधनानि नियमा: योगसूत्रा २ ।३२
(शौच) अर्थात् स्नानादि से पवित्राता (सन्तोष) सम्यक प्रसन्न होकर
निरुद्यम रहना सन्तोष नहीं, किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके उतना करना, हानि लाभ
में हर्ष वा शोक न करना (तप) अर्थात् कष्टसेवन से भी धर्मयुक्त कर्मो का अनुष्ठान,
(स्वाध्याय) पढ़ना पढ़ाना (र्इश्वरप्रणिधन) र्इश्वर की भक्तिविशेष में आत्मा को
अर्पित रखना, ये पांच नियम कहाते है ।
यमों के विना केवल इन नियमों का सेवन
न करे किन्तु इन दोनों का सेवन किया करे– जो यमों का सेवन छोड़ के केवल
नियमों का सेवन करता है वह उन्नति को नहीं प्राप्त होता किन्तु अधेगति अर्थात्
संसार में गिरा रहता है
कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहस्त्यकामता
काम्यो हि वेदाध्गिम: कर्मयोगश्च वैदिक: मनु॰ २.२
अर्थ--अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिये भी श्रेष्ठ नहीं,
क्योंकि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्मादि उत्तम कर्म किसी
से न हो सकें
यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः |
यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन् ॥मनु .४.२०४
यम पांच प्रकार के होते हैं--
तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रंचर्यापरिग्रहा यमा: योगसूत्रा २ । ३०
अर्थात् (अहिसा ) वैरत्याग, (सत्य) सत्य मानना, सत्य बोलना और सत्य
ही करना, (अस्तेय) अर्थात् मन वचन कर्म से चोरीत्याग, (ब्रह्मचर्य) अर्थात्
उपस्थेन्द्रिय का संयम, (अपरिग्रह) अत्यन्त लोलुपता स्वत्वाभिमानरहित होना, इन
पांच यमों का सेवन सदा करें । केवल नियमों का सेवन अर्थात्--
शौचसन्तोषतप:स्वामयायेश्वरप्रणिधनानि नियमा: योगसूत्रा २ ।३२
(शौच) अर्थात् स्नानादि से पवित्राता (सन्तोष) सम्यक प्रसन्न होकर
निरुद्यम रहना सन्तोष नहीं, किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके उतना करना, हानि लाभ
में हर्ष वा शोक न करना (तप) अर्थात् कष्टसेवन से भी धर्मयुक्त कर्मो का अनुष्ठान,
(स्वाध्याय) पढ़ना पढ़ाना (र्इश्वरप्रणिधन) र्इश्वर की भक्तिविशेष में आत्मा को
अर्पित रखना, ये पांच नियम कहाते है ।
यमों के विना केवल इन नियमों का सेवन
न करे किन्तु इन दोनों का सेवन किया करे– जो यमों का सेवन छोड़ के केवल
नियमों का सेवन करता है वह उन्नति को नहीं प्राप्त होता किन्तु अधेगति अर्थात्
संसार में गिरा रहता है
कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहस्त्यकामता
काम्यो हि वेदाध्गिम: कर्मयोगश्च वैदिक: मनु॰ २.२
अर्थ--अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिये भी श्रेष्ठ नहीं,
क्योंकि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्मादि उत्तम कर्म किसी
से न हो सकें
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