शनिवार, 24 मई 2014

मनु स्मृति --- महर्षि दयानन्द सरस्वत

मनु स्मृति ---  महर्षि दयानन्द सरस्वती
 

इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु –
संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ॥ मनु २.२८

अर्थ--जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे मन और आत्मा
को खोटे कामों में खैंचने वाले विषयों में विचरती हुर्इ इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न
सब प्रकार से करें– क्योंकि--
 

इन्द्रियाणां प्रसन्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम् ।
सन्नियम्य तु तान्येव तत: सिद्धि नियच्छति ॥ मनु २.८८

अर्थ--जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त
होता है और जब इन्द्रियों को अपने वश में करता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता
है ॥

 वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च ।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित् ॥ मनु २ . ९७

जो दुष्टाचारी-अजितेन्द्रिय पुरुष हैं उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप
तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्ध को नहीं प्राप्त होते ।
 

वेदोपकरणे चैव स्वामयाये चैव नैत्यके
नानुरोधेण्स्त्यनमयाये होममन्त्रोषु चैव हि ।।१॥
नैत्यके नास्त्यनमयायो ब्रंसत्रां हि तत्स्मृतम्
 ब्राह्महुतिहुतं पुण्यम् अनमयायवषट्कृतम् ॥ २ ॥ मनु॰२ ।१०५-१०६ ॥
वेद के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पन्चमहायज्ञों के करने और होममन्त्रों
में अनध्याय और अनुरोध् अर्थात अनुष्ठान ( रूकावट ) नहीं है क्योंकि न नित्यकर्म में अनध्याय नही होता ॥ १॥
जैसे श्वासप्रश्वास सदा लिये जाते हैं बन्ध् नहीं किये जाते वैसे नित्यकर्म
प्रतिदिन करना चाहिये न किसी दिन छोड़ना क्योंकि अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि
उनम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है, जैसे झूठ बोलने में सदा पाप और सत्य
बोलने में सदा पुण्य होता है, वैसे ही बुरे कर्म करने में सदा अनध्यय और अच्छे
कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है ॥ २ ॥
 

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृणेपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्ण्न्त आयुर्विद्या यशो बलम् ।। मनु.२.१२१

जो सदा नम्र सुशील विद्वान् और वृद्धो की सेवा करता है, उसका आयु,
विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु
आदि चार नहीं बढ़ते ।

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