"पठन-पाठन की व्यवस्था" (व्यौहार भानु)
महर्षि दयानन्द सरस्वती
आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च ।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा•त्यागित्वमेव च ।
एते वै सप्त दोषा: स्यु: सदा विद्यार्थिनां मता: ॥
(व्यौहार भानु) भाग ३
"पठन-पाठन की व्यवस्था"
जो विद्या पढ़ें और पढ़ावें वे निम्नलिखित दोषयुक्त न हों ------आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च ।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा•त्यागित्वमेव च ।
एते वै सप्त दोषा: स्यु: सदा विद्यार्थिनां मता: ॥
सुखार्थिन: कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिन: सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम् ॥
आलस्य, अभिमान, नशा करना, मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर- उधर
की अण्डबण्ड बातें करना, जडता, कभी पढ़ना कभी न पढ़ना, अभिमान
और लोभ लालच ये सात (7) विद्यार्थियों के लिये विद्या के विरोधी दोष हैं।
क्योंकि जिसको सुख चैन करने की इच्छा है उसको विद्या कहाँ और जिसका
चित्त विद्या ग्रहण करने कराने में लगा है उसको विषयसम्बन्धी सुख चैन
कहाँ ? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को छोड़ें और विद्यार्थी विषयसुख से
अवश्य अलग रहें। नहीं तो परमधर्मरूप विद्या का पढ़ना-पढ़ाना कभी नहीं
हो सकेगा।
ये श्लोक भी महाभारत विदुरप्रजागर अध्याय 39 में लिखे हैं।
प्र0) कैसे-कैसे मनुष्यसब विद्याओं की प्राप्ति करा सकते है?
उ0) ब्रह्मचर्यस्य च गुणं श्रृणु त्वं वसुधाधिप ।
आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह ॥1 ॥
न तस्य कि चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप ।
बह्य: को्ट्यस्त्वृषीणां च ब्रह्मलोके वसन्त्युत ॥2 ॥
भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि---हे राजन् ! तू ब्रह्मचर्य के गुण
सुन । जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेके मरणपर्य्यन्त ब्रह्मचारी होता है
॥1 ॥ उसको कोर्इ शुभगुण अप्राप्त नहीं रहता ऐसा तू जान कि जिसके
प्रताप से अनेक क्रोड़ ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात् सर्वानन्दस्वरूप परमात्मा में
वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं ॥2 ॥
======
सत्ये रतानां सततं दान्तानामूध्र्वरेतसाम् ।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम् ॥3 ॥
जो निरन्तर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शान्तात्मा, उत्कृष्ट, शुभगुण
स्वभावयुक्त और रोगरहित पराक्रमसहित शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदादि
और सत्य शास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादि करते हैं
उनके वे सब बुरे काम और दु:खों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और
सब सुखों की प्राप्ति करानेहारे होते हैं । और इन्हीं के सेवन से मनुष्यउत्तम
अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं ॥3 ॥
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम् ॥
आलस्य, अभिमान, नशा करना, मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर- उधर
की अण्डबण्ड बातें करना, जडता, कभी पढ़ना कभी न पढ़ना, अभिमान
और लोभ लालच ये सात (7) विद्यार्थियों के लिये विद्या के विरोधी दोष हैं।
क्योंकि जिसको सुख चैन करने की इच्छा है उसको विद्या कहाँ और जिसका
चित्त विद्या ग्रहण करने कराने में लगा है उसको विषयसम्बन्धी सुख चैन
कहाँ ? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को छोड़ें और विद्यार्थी विषयसुख से
अवश्य अलग रहें। नहीं तो परमधर्मरूप विद्या का पढ़ना-पढ़ाना कभी नहीं
हो सकेगा।
ये श्लोक भी महाभारत विदुरप्रजागर अध्याय 39 में लिखे हैं।
प्र0) कैसे-कैसे मनुष्यसब विद्याओं की प्राप्ति करा सकते है?
उ0) ब्रह्मचर्यस्य च गुणं श्रृणु त्वं वसुधाधिप ।
आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह ॥1 ॥
न तस्य कि चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप ।
बह्य: को्ट्यस्त्वृषीणां च ब्रह्मलोके वसन्त्युत ॥2 ॥
भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि---हे राजन् ! तू ब्रह्मचर्य के गुण
सुन । जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेके मरणपर्य्यन्त ब्रह्मचारी होता है
॥1 ॥ उसको कोर्इ शुभगुण अप्राप्त नहीं रहता ऐसा तू जान कि जिसके
प्रताप से अनेक क्रोड़ ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात् सर्वानन्दस्वरूप परमात्मा में
वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं ॥2 ॥
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सत्ये रतानां सततं दान्तानामूध्र्वरेतसाम् ।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम् ॥3 ॥
जो निरन्तर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शान्तात्मा, उत्कृष्ट, शुभगुण
स्वभावयुक्त और रोगरहित पराक्रमसहित शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदादि
और सत्य शास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादि करते हैं
उनके वे सब बुरे काम और दु:खों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और
सब सुखों की प्राप्ति करानेहारे होते हैं । और इन्हीं के सेवन से मनुष्यउत्तम
अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं ॥3 ॥
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