महर्षि दयानन्द सरस्वती
प्र0) कैसे मनुष्य पढ़ाने और उपदेश करनेवाले न होने चाहियें ?
उ0) मूर्ख के लक्षण
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामना: ।
अर्थांश्चाकर्म्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधै: ॥ 1 ॥
जो किसी विद्या को न पढ़ और किसी विद्वान् का उपदेश न सुनकर
बड़ा घमंडी, दरिद्र होकर धनसम्बन्धी बड़े-बड़े कामों की इच्छा वाला और
विना किये बड़े-बड़े फलों की इच्छा करनेहारा है ॥1 ॥
दृष्टान्त
एक दरिद्र शेखचिल्ली नामक किसी ग्राम में था। वहाँ किसी
नगर का बनिया दस रुपये उधार लेकर घी लेने आया था। वह घी लेकर
घडे़ में भर किसी मजूर की खोज में था। वहाँ शेखचिल्ली आ निकला।
उससे पूछा कि इस घड़े को तीन कोस पर ले जाने की क्या मजूरी लेगा।
उसने कहा कि आठ आने। आगे बनिये ने कहा कि चार आने लेना हो तो
ले। उसने कहा---अच्छा। शेखचिल्ली घड़ा ले चला और बनिया पीछे-पीछे
चलता हुआ मन में मनोरथ करने लगा कि दश रुपयों के घी के ग्यारह रुपये
आवेंगे। दश रुपया सेठ को दूँगा और एक रुपया घर की पूँजी रहेगी। वैसे
ही दश फेरे में दश रुपये हो जायेंगे। इसी प्रकार दश से सौ, सौ से सहस्र,
सहस्र से लक्ष, लक्ष से करोड़ फिर सब जगह कोठियाँ करूँगा और सब राजा
लोग मेरे कर्जदार हो जायेंगे। इत्यादि बड़े-बड़े मनोरथ करने लगा और
शेखचिल्ली ने विचारा कि चार आने की रुर्इ ले सूत कात कर बेचूँगा आठ
आने मिलेंगे। फिर आठ आने से एक रुपया हो जायेगा फिर वैसे ही एक से
दो रुपये होंगे। उनसे एक बकरी लूँगा। जब उसके कच्चे बच्चे होंगे तब
उनको बेच एक गाय लूँगा। उसके कच्चे बच्चे बेच भैंस लूँगा। उसके कच्चे
बच्चे बेच एक घोड़ी लूँगा। उसके कच्चे बच्चे बेच एक हथिनी लूँगा और
उसके कच्चे बच्चे बेच दो बीवियाँ ब्याहूँगा। एक का नाम प्यारी और दूसरी
का नाम बेप्यारी रखूंगा । जब प्यारी के लड़के गोद में बैठने आवेंगे तब
कहँूगा बच्चे आओ बैठो और जब बेप्यारी के लड़के आकर कहेंगे कि हम
भी बैठें तब कहँूगा नहीं-नहीं। ऐसा कहकर शिर हिला दिया। घड़ा गिर
पड़ा, फूट गया और घी भूमि पर फैल के धूलि में मिल गया। बनिया रोने
लगा और शेखचिल्ली भी रोने लगा। बनिये ने शेखचिल्ली को धमकाया कि
घी क्यों गिरा दिया और रोता क्यों है ? तेरा क्या नुकसान हुआ ? (शेखचिल्ली)
तेरा क्या बिगाड़ हुआ ? तू क्यों रोता है? (बनिया) मैंने दश रुपये उधार
लेकर प्रथम ही घी खरीदा था उस पर बड़े-बड़े लाभ का विचार किया था।
वह मेरा सब बिगड़ गया। मैं क्यों न रोऊँ ? (शेखचिल्ली) तेरी तो दश रुपये
आदि की ही हानि हुर्इ मेरा तो घर ही बना बनाया बिगड़ गया। मैं क्यों न
----------
रोऊँ ? (बनिया) क्या तेरे रोने से मेरा घी आ जायेगा ? (शेखचिल्ली) अच्छा
तो तेरे रोने से मेरा घर भी न बन जायेगा। तू बड़ा मूर्ख है। (बनिया) तू मूर्ख,
तेरा बाप। दोनों आपस में एक दूसरे को मारने लगे। फिर मारपीट कर
शेखचिल्ली अपने घर की ओर भाग गया और उस बनिये ने धूलि मिले हुए
घी को ठीकरे में उठाकर अपने घर की राह ली। ऐसे ही स्वसामर्थ्य के विना
अशक्य मनोरथ किया करना मूर्खों का काम है और जो विना परिश्रम के
पदार्थों की प्राप्ति में उत्साही होता है उसी मनुष्यको विद्वान् लोग मूर्ख कहते
हैं।
अनाहुत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधम: ॥ 2 ॥
(महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर, अ0 32)
जो विना बुलाये जहाँ-तहाँ सभादि स्थानों में प्रवेश कर सत्कार और
उच्चासन को चाहे वा ऐसे रीति से बैठे कि सब सत्पुरुषों को उसका
आचरण अप्रिय विदित हो, विना पूछे बहुत अण्डबण्ड बके और अविश्वासियों
में विश्वासी होकर सुख की हानि कर लेवे वही मनुष्यमूढ़बुद्धि और मनुष्यों
में नीच कहाता है ॥2 ॥
जहाँ ऐसे-ऐसे मूढ़ मनुष्यपठनपाठन आदि व्यवहारों को करने हारे
होते हैं वहाँ सुखों का तो दर्शन कहाँ ? किन्तु दु:खों की भरमार तो हुआ ही
करती है इसलिये बुद्धिमान् लोग ऐसे-ऐसे मूढ़ों का प्रसंग वा इनके साथ
पठनपाठनक्रिया को व्यर्थ समझकर पूर्वोंक्त धार्मिक विद्वानों का प्रसंग और
उन्हीं से विद्या का अभ्यास और सुशील बुद्धिमान् विद्यार्थियों ही को पढ़ाया
करें। विद्वान् और मूर्ख के लक्षण विधायक श्लोक विदुरप्रजागर के 32
अध्याय में एक ही ठिकाने लिखे हैं।
(व्यौहार भानु) भाग २
"पठन-पाठन की व्यवस्था"
प्र0) कैसे मनुष्य पढ़ाने और उपदेश करनेवाले न होने चाहियें ?
उ0) मूर्ख के लक्षण
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामना: ।
अर्थांश्चाकर्म्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधै: ॥ 1 ॥
जो किसी विद्या को न पढ़ और किसी विद्वान् का उपदेश न सुनकर
बड़ा घमंडी, दरिद्र होकर धनसम्बन्धी बड़े-बड़े कामों की इच्छा वाला और
विना किये बड़े-बड़े फलों की इच्छा करनेहारा है ॥1 ॥
दृष्टान्त
एक दरिद्र शेखचिल्ली नामक किसी ग्राम में था। वहाँ किसी
नगर का बनिया दस रुपये उधार लेकर घी लेने आया था। वह घी लेकर
घडे़ में भर किसी मजूर की खोज में था। वहाँ शेखचिल्ली आ निकला।
उससे पूछा कि इस घड़े को तीन कोस पर ले जाने की क्या मजूरी लेगा।
उसने कहा कि आठ आने। आगे बनिये ने कहा कि चार आने लेना हो तो
ले। उसने कहा---अच्छा। शेखचिल्ली घड़ा ले चला और बनिया पीछे-पीछे
चलता हुआ मन में मनोरथ करने लगा कि दश रुपयों के घी के ग्यारह रुपये
आवेंगे। दश रुपया सेठ को दूँगा और एक रुपया घर की पूँजी रहेगी। वैसे
ही दश फेरे में दश रुपये हो जायेंगे। इसी प्रकार दश से सौ, सौ से सहस्र,
सहस्र से लक्ष, लक्ष से करोड़ फिर सब जगह कोठियाँ करूँगा और सब राजा
लोग मेरे कर्जदार हो जायेंगे। इत्यादि बड़े-बड़े मनोरथ करने लगा और
शेखचिल्ली ने विचारा कि चार आने की रुर्इ ले सूत कात कर बेचूँगा आठ
आने मिलेंगे। फिर आठ आने से एक रुपया हो जायेगा फिर वैसे ही एक से
दो रुपये होंगे। उनसे एक बकरी लूँगा। जब उसके कच्चे बच्चे होंगे तब
उनको बेच एक गाय लूँगा। उसके कच्चे बच्चे बेच भैंस लूँगा। उसके कच्चे
बच्चे बेच एक घोड़ी लूँगा। उसके कच्चे बच्चे बेच एक हथिनी लूँगा और
उसके कच्चे बच्चे बेच दो बीवियाँ ब्याहूँगा। एक का नाम प्यारी और दूसरी
का नाम बेप्यारी रखूंगा । जब प्यारी के लड़के गोद में बैठने आवेंगे तब
कहँूगा बच्चे आओ बैठो और जब बेप्यारी के लड़के आकर कहेंगे कि हम
भी बैठें तब कहँूगा नहीं-नहीं। ऐसा कहकर शिर हिला दिया। घड़ा गिर
पड़ा, फूट गया और घी भूमि पर फैल के धूलि में मिल गया। बनिया रोने
लगा और शेखचिल्ली भी रोने लगा। बनिये ने शेखचिल्ली को धमकाया कि
घी क्यों गिरा दिया और रोता क्यों है ? तेरा क्या नुकसान हुआ ? (शेखचिल्ली)
तेरा क्या बिगाड़ हुआ ? तू क्यों रोता है? (बनिया) मैंने दश रुपये उधार
लेकर प्रथम ही घी खरीदा था उस पर बड़े-बड़े लाभ का विचार किया था।
वह मेरा सब बिगड़ गया। मैं क्यों न रोऊँ ? (शेखचिल्ली) तेरी तो दश रुपये
आदि की ही हानि हुर्इ मेरा तो घर ही बना बनाया बिगड़ गया। मैं क्यों न
----------
रोऊँ ? (बनिया) क्या तेरे रोने से मेरा घी आ जायेगा ? (शेखचिल्ली) अच्छा
तो तेरे रोने से मेरा घर भी न बन जायेगा। तू बड़ा मूर्ख है। (बनिया) तू मूर्ख,
तेरा बाप। दोनों आपस में एक दूसरे को मारने लगे। फिर मारपीट कर
शेखचिल्ली अपने घर की ओर भाग गया और उस बनिये ने धूलि मिले हुए
घी को ठीकरे में उठाकर अपने घर की राह ली। ऐसे ही स्वसामर्थ्य के विना
अशक्य मनोरथ किया करना मूर्खों का काम है और जो विना परिश्रम के
पदार्थों की प्राप्ति में उत्साही होता है उसी मनुष्यको विद्वान् लोग मूर्ख कहते
हैं।
अनाहुत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधम: ॥ 2 ॥
(महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर, अ0 32)
जो विना बुलाये जहाँ-तहाँ सभादि स्थानों में प्रवेश कर सत्कार और
उच्चासन को चाहे वा ऐसे रीति से बैठे कि सब सत्पुरुषों को उसका
आचरण अप्रिय विदित हो, विना पूछे बहुत अण्डबण्ड बके और अविश्वासियों
में विश्वासी होकर सुख की हानि कर लेवे वही मनुष्यमूढ़बुद्धि और मनुष्यों
में नीच कहाता है ॥2 ॥
जहाँ ऐसे-ऐसे मूढ़ मनुष्यपठनपाठन आदि व्यवहारों को करने हारे
होते हैं वहाँ सुखों का तो दर्शन कहाँ ? किन्तु दु:खों की भरमार तो हुआ ही
करती है इसलिये बुद्धिमान् लोग ऐसे-ऐसे मूढ़ों का प्रसंग वा इनके साथ
पठनपाठनक्रिया को व्यर्थ समझकर पूर्वोंक्त धार्मिक विद्वानों का प्रसंग और
उन्हीं से विद्या का अभ्यास और सुशील बुद्धिमान् विद्यार्थियों ही को पढ़ाया
करें। विद्वान् और मूर्ख के लक्षण विधायक श्लोक विदुरप्रजागर के 32
अध्याय में एक ही ठिकाने लिखे हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें