गुरुवार, 29 मई 2014

"पठन-पाठन की व्यवस्था" (व्यौहार भानु)४

 "पठन-पाठन की व्यवस्था" (व्यौहार भानु)४ 

 महर्षि दयानन्द सरस्वत


प्र0) शूरवीर किसको कहते हैं ?
 
उ0) वेदा•ध्ययनशूराश्च शूराश्चा•ध्ययने रता: ।
गुरुशुश्रूषया शूरा: पितृशुश्रूषया•परे ॥1 ॥



जो मनुष्यवेदादि शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने में शूरवीर, जो दुष्टों के
दलन और श्रेष्ठों के पालन में शूरवीर अर्थात् दृढ़ोत्साही उद्योगी, जो निष्कपट
परोपकारक अध्यापकों की सेवा करके शूरवीर, जो अपने जनक की सेवा
करके शूरवीर ॥1 ॥

मातृशुश्रूषया शूरा भैक्ष्यशूरास्तथा•परे ।
अरण्यगृहवासे च शूराश्चा•तिथिपूजने ॥2 ॥

जो माता की परिचर्या से शूर, जो संन्यासाश्रम से युक्त
अतिथिरूप होकर सर्वत्र भ्रमण करके परोपकार करने में शूर, जो वानप्रस्थाश्रम
के कर्म और जो गृहाश्रम के व्यवहार में शूर होते हैं वे ही सब सुखों के लाभ
करने कराने में अत्युत्तम होके धन्यवाद के पात्र होते हैं कि जो अपना
तन, मन, धन, विद्या और धर्मादि शुभ गुण ग्रहण करने में सदा उपयुक्त
करते हैं ॥2 ॥

प्र0) शिक्षा किसको कहते हैं ?
उ0) जिससे मनुष्यविद्या आदि शुभ गुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों
को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें वह शिक्षा कहाती है।

प्र0) विद्या और अविद्या किसको कहते हैं ?
उ0) जिससे पदार्थ का स्वरूप यथावत् जानकर उससे उपकार लेके अपने
और दूसरों के लिये सब सुखों को सिद्ध कर सकें वह विद्या और जिससे
पदार्थों के स्वरूप को उल्टा जानकर अपना और पराया अनुपकार कर लेवें
वह अविद्या कहाती है ।

प्र0) मनुष्यों को विद्या की प्राप्ति और अविद्या के नाश के लिये क्या-क्या
कर्म करना चाहिये ?

उ0) वर्णोच्चारण से लेकर वेदार्थज्ञान के लिये ब्रह्मचर्य आदि कर्म करना
योग्य है ।

प्र0) ब्रह्मचारी किसको कहते हैं ?
उ0) जो जितेन्द्रिय होके ब्रह्म अर्थात् वेदविद्या के लिये तथा आचार्य-कुल
में जाकर विद्या ग्रहण के लिये प्रयत्न करे वह ब्रह्मचारी कहाता है ।

प्र0) आचार्य किसको कहते हैं ?
उ0) जो विद्यार्थियों को अत्यन्त प्रेम से धर्मयुक्त व्यवहार की शिक्षापूर्वक
विद्या होने के लिये तन, मन और धन से प्रयत्न करे उसको ‘आचार्य’ कहते
हैं।
प्र0) अपने सन्तानों के लिये माता, पिता और आचार्य क्या-क्या शिक्षा
करे ?

उ0) मातृमान् पितृमानाचार्य्यवान् पुरुषो वेद ॥
शतपथब्राह्मण ॥

अहोभाग्य उस मनुष्यका है कि जिसका जन्म धार्मिक विद्वान्
माता-पिता और आचार्य के सम्बन्ध में हो । क्योंकि इन तीनों ही की शिक्षा
से मनुष्यउत्तम होता है । ये अपने सन्तान और विद्यार्थियों को अच्छी भाषा
बोलने, खाने-पीने, बैठने-उठने, वस्त्रधारण करने, माता-पिता आदि के
मान्य करने, उनके सामने यथेष्टाचारी न होने, विरुद्ध चेष्टा न करने आदि
के लिये प्रयत्नों से नित्यप्रति उपदेश किया करें और जैसा-जैसा उसका
सामर्थ्य बढ़ता जाय वैसी-वैसी उत्तम बातें सिखलाते जायें । इसी प्रकार
लड़के और लड़कियों को पाँच वा आठ वर्ष की अवस्था पर्यन्त माता-पिता
और इनके उपरान्त आचार्य की शिक्षा होनी चाहिये ।

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