बुधवार, 28 मई 2014

वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम की संक्षिप्त व्याख्या

वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम की संक्षिप्त व्याख्या 


त्रायो धर्मस्कन्ध यज्ञोअध्ययनं दानमिति प्रथमस्तप एव द्वितीयो ब्रह्मचार्याचार्यकुलवासी
तृतीयोअत्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेअवसादयन् सर्व एते पुण्यलोका भवन्ति ।।
छान्दोग्य॰ प्र॰२ । खं॰२३ ।।


भाषार्थ---(त्रायो धर्म॰) धर्म के तीन स्कन्ध् हैं---एक विद्या का अमययन, दूसरा यज्ञ अर्थात्
उत्तम क्रियाओं का करना, तीसरा दान अर्थात् विद्यादि उत्तम गुणों का देना तथा प्रथम तप अर्थात्
वेदोक्त धर्म के अनुष्ठानपूर्वक विद्या पढ़ाना दूसरा आचार्यकुल में बस के विद्या पढ़ना और तीसरा
परमेश्वर का ठीक ठीक विचार करके सब विद्याओं को जान लेना । इन बातों से सब प्रकार की
उन्नति करना मनुष्यों का धर्म है ।।

तथा संन्यासाश्रम के तीन पक्ष हैं---उन में एक यह है कि जो विषय भोग किया चाहे वह
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ इन आश्रमों को करके संन्यास ग्रहण करे । दूसरा ‘यदहरेव प्र॰’ जिस
समय वैराग्य अर्थात् बुरे कामों से चित्त हटाकर ठीक ठीक सत्यमार्ग में निश्चित हो जाय, उस समय
गृहाश्रम से भी संन्यास हो सकता है, और तीसरा जो पूर्ण विद्वान् होकर सब प्राणियों का शीघ्र उपकार
किया चाहे तो ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर ले ।
 
ब्रह्मसंस्थोsमृतत्वमेति ।। छान्दो॰ प्रपा॰२ । खं॰२३ ।।

भाषार्थ---(तमेतं॰) जो कि वेद को पढ़ के परमेश्वर को जानने की इच्छा करते हैं,
(ब्रह्मसस्थ:) वे संन्यासी लोग मोक्ष को प्राप्त होते हैं, तथा (ब्रह्मच॰) जो सत्पुरुष ब्रह्मचर्य,
धर्मानुष्ठान, श्रण, यज्ञ और ज्ञान से परमेश्वर को जान के मुनि अर्थात् विचारशील होते हैं, वे ही
ब्रह्मलोक अर्थात् संन्यासियों के प्राप्तिस्थान को प्राप्त होने के लिये संन्यास लेते हैं । जो उन में उत्तम
पूर्ण विद्वान् हैं, वे गृहाश्रम और वानप्रस्थ के विना ब्रह्मचर्य आश्रम से ही संन्यासी हो जाते हैं । और
उन के उपदेश से जो पुत्रा होते हैं, उन्हीं को सब से उत्तम मानकर (पुत्रौषणा) अर्थात् सन्तानोत्पनि
की इच्छा (वित्तैषणा) अर्थात् धन का लोभ, (लोकैषणा) अर्थात् लोक में प्रतिष्ठा की इच्छा करना,
इस तीन प्रकार की इच्छा को छोड़ के वे भिक्षाचरण करते हैं अर्थात् सर्वगुरु सब के अतिथि होके
विचरते हुए संसार को अज्ञानरूपी अन्धकार से छुड़ा के सत्य विद्या के उपदेश रूप प्रकाश से
प्रकाशित कर देते हैं ।
 
प्राजापत्यामिष्टि निरूप्य तस्यां सर्ववेदसं हुत्वा ब्राह्मण: प्रव्रजेद् ।।
इति शतपथे श्रुत्यक्षराणि।।

यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसन्व: कामयते यांश्च कामान् ।
तं तं लोकं जायते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकाम: ।।
मुण्डकोपनि॰ ३ मुण्डके ल। खं॰१ । मं॰१० ।।


भाषार्थ---(प्राजापत्या॰) अर्थात् इस इष्टि में शिखा सूत्रादि का होम करके, गृहस्थ आश्रम को
छोड़ के, विरक्त होकर संन्यास ग्रहण करें ।।
(यं यं लोक॰) वह शुद्ध मन से जिस जिस लोक और कामना की इच्छा करता है, वे सब
उस की सिद्ध हो जाती हैं । इसलिये जिस को ऐश्वर्य की इच्छा हो, वह आत्मज्ञ अर्थात् ब्रह्मवेत्ता
संन्यासी की सेवा करे ।
ये चारों आश्रम वेदों और युक्तियों से सिद्ध हैं । क्योंकि सब मनुष्यों को अपनी आयु का प्रथम
भाग विद्या पढ़ने में व्यतीत करना चाहिए और पूर्ण विद्या को पढ़कर उस से संसार की उन्नति करने
के लिए गृहाश्रम भी अवश्य करें । तथा विद्या और संसार के उपकार के लिये एकान्त में बैठकर
सब जगत् का अधिष्ठाता जो र्इश्वर है, उस का ज्ञान अच्छी प्रकार करें और मनुष्यों को सब व्यवहारों
का उपदेश करें । फिर उन के सब सन्देहों का छेदन और सत्य बातों के निश्चय कराने के लिये संन्यास
आश्रम भी अवश्य ग्रहण करें । क्योंकि इस के विना सम्पूर्ण पक्षपात छूटना बहुत कठिन है ।

कोई टिप्पणी नहीं: