गुरुवार, 29 मई 2014

पठन-पाठन की व्यवस्था ( व्यौहारभानु )

आर्य समाज

पठन-पाठन की व्यवस्था       

 "महर्षि दयानन्द सरस्वती"

 
प्र0) कैसे पुरुष पढ़ाने और शिक्षा करनेहारे होने चाहियें ?
उ0) पढ़ाने वालों के लक्षण -
 
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता ।
यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ 1 ॥

जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान, जो आलस्य को
छोड़कर सदा उद्योगी सुखदु:खादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला
हो; जिसको कोर्इ पदार्थ धर्म से छुड़ा अधर्म की ओर न खींच सके वह
‘पण्डित’ कहाता है ॥ 1 ॥

 
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिक: श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥ 2 ॥

जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों को करने और निन्दित अधर्मयुक्त
कर्मों को कभी न सेवनेहारा; न कदापि र्इश्वर, वेद और धर्म का विरोधी
और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है वही मनुष्य‘पण्डित’
के लक्षणयुक्त होता है ॥ 2 ॥
 
क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति,
विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासंपृष्टो ह्युपयुड़्क्ते परार्थे,
तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥3 ॥

जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने,
दीर्घकाल पर्य्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान
देकर सुनकर ठीक-ठीक समझ निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर
करने; परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को जान के उनसे उपकार
लेने में तन, मन, धन से प्रवृत्त होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि
दुष्टगुणों से पृथक् वर्त्तमान; किसी के पूछने वा दोनों के संवाद में विना प्रसन्ग
के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला मनुष्यहै, यही ‘पण्डित’ का
प्रथम बुद्धिमत्ता का लक्षण है ॥ 3 ॥
 
नाप्राप्यमभिवा´छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नरा: पण्डितबुद्धय: ॥ 4 ॥

जो मनुष्यप्राप्त होने के अयोग्य पदार्थों की कभी इच्छा नहीं करते;
अदृष्ट वा किसी पदार्थ के नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर शोक करने की अभिलाषा
नहीं करते और बड़े-बड़े दु:खों से युक्त व्यवहारों की प्राप्ति में भी मूढ़
होकर नहीं घबराते हैं वे मनुष्यपण्डितों की बुद्धि से युक्त कहाते हैं ॥ 4 ॥
 
प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च य: स पण्डित उच्यते ॥5 ॥

जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलने वाली, अत्यन्त अद्भुत विद्याओं
की कथाओं को करने, विना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने-जनाने,
सुनी विचारी विद्याओं को सदा उपस्थित रखने और जो सब विद्याओं के
ग्रन्थों को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ाने वाला मनुष्यहै, वही पंडित कहाता
है ॥ 5 ॥
 
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असंभिन्नार्य्यमर्य्याद: पण्डिताख्यां लभेत स: ॥6 ॥

जिसकी सुनी हुर्इ और पठित विद्या अपनी बुद्धि के सदा अनुकूल
और बुद्धि और क्रिया सुनी पढ़ी हुर्इ विद्याओं के अनुसार जो धार्मिक श्रेष्ठ
पुरुषों की मर्यादा का रक्षक और दुष्ट डाकुओं की रीति को विदीर्ण करनेहारा
मनुष्यहै वही पण्डित नाम धराने के योग्य होता है ॥6 ॥
जहाँ ऐसे-ऐसे सत्य पुरुष पढ़ाने और बुद्धिमान् पढ़नेवाले होते हैं
वहाँ विद्या और धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है और
जहाँ निम्नलिखित मूढ़ पढ़ने पढ़ानेहारे होते हैं वहाँ अविद्या और अधर्म की
उन्नति होकर दु:ख ही बढ़ता जाता है ।
 ( व्यौहारभानु ) महर्षि भूषण

कोई टिप्पणी नहीं: