सोमवार, 26 मई 2014

होम के मन्त्र और पांच महायज्ञों का फल

होम के मन्त्र और पांच महायज्ञों का फल
 

ओम् अग्नये स्वाहा । सोमाय स्वाहा । अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा । विश्वेभ्यो
देवेभ्य: स्वाहा । धन्वन्तरये स्वाहा । कुव्हैस्वाहा । अनुमत्यै स्वाहा । प्रजापतये
स्वाहा । सह ध्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा । स्विष्टकृते स्वाहा । ३.८५-८६

इन प्रत्येक मन्त्रों से एक----एक बार आहुति (उबले चावल ,घृत और कुछ मिष्ट मिलाकर )
भोजन के पूर्व, प्रज्वलित अग्नि में छोड़े।
पश्चात्
थाली अथवा भूमि में पत्र रख के पूर्व दिशादि क्रमानुसार यथाक्रम इन मन्त्रों से
भाग रक्खे----
ओं सानुगायेनंय नम:। सानुगाय यमाय नम। सानुगाय वरुणाय नम
सानुगाय सोमाय नम:। मरुद्भ्यो नमः । अद्भ्यो नम: । वनस्पतिभ्यो नमः । श्रियै
नम: । भद्रकाल्यै नम: । ब्रह्मपतये नम: । वास्तुपतये नम: । विश्वेभ्यो देवेभ्यो
नम: । दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नम: । नक्तन्चारिभ्यो भूतेभ्यो नम: । सर्वात्मभूतये
नम: । मनु . ३ . ८७—९१ ।

इन भागों को जो कोर्इ कुत्ते, पापी, चाण्डाल, पाप ,रोगी कौवे
और कृमि अर्थात् चींटी आदि हो तो उन्हे अन्न देवे अथवा अग्नि
में छोड़ देवे इनके अनन्तर लवणान्न अर्थात् दाल, भात, शाक, रोटी आदि लेकर
१५ भाग भूमि में छोडे इसमें प्रमाण--------
 

शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम ।
वायसानां कृमीणां च शनवैफर्निर्वपेद् भुविभ ॥ मनु ३.९२

इस प्रकार ‘श्वभ्यो नम:। पतितेभ्यो नम:। श्वपग्भ्यो नम:। पापरोगिभ्यो
नम:। वायसेभ्यो नम:। छमिभ्यो नम:।।’ अर्थात किसी दु:खी बुभुक्षित
प्राणी अथवा कुत्ते, कौवे आदि को दे देवे
यहां नम: शब्द का अर्थ अन्न अर्थात् कुत्ते, पापी, चाण्डाल, पाप ,रोगी कौवे
और कृमि अर्थात् चींटी आदि को अन्न देना यह मनुस्मृति आदि की विधि
है
हवन करने का प्रयोजन यह है कि--------पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना
और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना है ।
 

अब पांचवीं अतिथिसेवा--------अतिथि उस को कहते हैं कि जिस की कोर्इ
तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धर्मिक, सत्योपदेशक, सब के उपकारार्थ
सर्वत्रा घूमने वाला, पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहां आवे तो उस
को प्रथम पाद्य, अर्घ और आचमनीय तीन प्रकार का जल देकर, पश्चात् आसन
पर सत्कारपूर्वक बिठाल कर, खान, पान आदि उनमोत्तम पदार्थो से सेवा शुश्रूषा
कर के, उन को प्रसन्न करे पश्चात् सत्सग् कर उन से ज्ञान विज्ञान आदि जिन
से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे----ऐसे उपदेशों का श्रवण करे
और चाल चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे समय पाके गृहस्थ और राजादि
भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य है । परन्तु--------
 

पाषण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृनिकान् शठान्।
हैतुकान् वकवृनींश्च वाडंमात्रोणापि नार्चयेत् ॥ मनु.४.३०

(पाषण्डी) अर्थात् वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे (विकर्मस्थ )
जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्ना मिथ्याभाषणादि युक्त, जैसे विड़ाला छिपके
और स्थिर होकर ताकता----ताकता भफपट से मूषे आदि प्राणियों को मार अपना पेट
भरता है वैसे जनों का नाम वैडालवृत्ति, (शठ) अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी,
आप जानें नहीं, औरों का कहा मानें नहीं, (हैतुक) कुतर्की व्यर्थ बकने वाले जैसे
कि आजकल के वेदान्ती बकते हैं ‘हम ब्रह्म और जगत् मिथ्या है वेदादि शास्त्रा
और र्इश्वर भी कल्पित हैं’ इत्यादि गपोड़ा हांकने वाले (वकवृत्ति ) जैसे वगुला एक
पैर उठा मध्यानावस्थित के समान होकर झट से मच्छी के प्राण हरके अपना स्वार्थ
सिद्ध करता है वैसे आजकल के वैरागी और खाखी आदि हठी दुराग्रही वेदविरोधी
हैं, ऐसों का सत्कार वाणीमात्रा से भी न करना चाहिये क्योंकि इनका सत्कार करने
से ये वृद्धि को पाकर संसार को अधर्मयुक्त करते है । आप तो अवनति के काम
करते ही हैं परन्तु साथ में सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते है ।
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इन पांच महायज्ञों का फल यह है कि ब्रह्मयज्ञ के करने से विद्या, शिक्षा,
धर्म, सभ्यता आदि शुभ गुणों की वृद्धि,
होती है---
 

अग्निहोत्रा से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धिहोकर वृष्टि द्वारा संसार को
सुख प्राप्त होना अर्थात् शुद्ध वायु का श्वास, स्पर्श, खान पान से आरोग्य, बुद्धि
बल, पराक्रम बढ़ के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना
इसीलिये इस को देवयज्ञ कहते है ।
 

पितृयज्ञ से जब माता पिता और ज्ञानी महात्माओं की सेवा करेगा तब उस
का ज्ञान बढ़ेगा उस से सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का
त्याग करके सुखी रहेगा दूसरा कृतज्ञता अर्थात् जैसी सेवा माता पिता और आचार्य
ने सन्तान और शिष्यों की है उसका बदला देना उचित ही है
बलिवैश्वदेव का भी फल जो पूर्व कह आये, वही है
 

 अतिथि यज्ञ
जब तक उत्तम अतिथि जगत् में नहीं होते तब तक उन्नति भी नहीं होती
उनके सब देशों में घूमने और सत्योपदेश करने से पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती
और सर्वत्रा गृहस्थों को सहज से सत्य विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्रा
में एक ही धर्म स्थिर रहता है विना अतिथियों के सन्देह निवृत्ति नहीं होती
सन्देहनिवृत्ति के विना दृढ़ निश्चय भी नहीं होता,

 निश्चय के विना सुख कहां?--------
 


रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे आवश्यक कार्य करके
धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे कभी
अधर्म का आचरण न करे क्योंकि--------
 

नाधर्मश्चरितो लोके सद्य: फलति गौरिव
शनैरावर्नमानस्तु कर्नुर्मूलानि कृन्ततिभ् मनु॰ ४ । १७२

किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता
है उसी समय फल भी नहीं होता इसलिये अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते तथापि
निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे----धीरे तुम्हारे सुख के मूलों को काटता चला
जाता है इस क्रम से--------
 

अधर्मेणैध्ते तावनतो भांणि पश्यति ।
तत: सपत्नान्जयति समूलस्तु विनश्यति॥ मनु ॰४ .१७४

जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बन्ध् तोड़
जल चारों ओर पफैल जाता है वैसेद्ध मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड अर्थात् रक्षा करने
वाले वेदों का खण्डन और विश्वासघातादि कर्मो से पराये पदार्थो को लेकर प्रथम
बढ़ता है पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्रा, आभूषण, यान, स्थान, मान,
प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट
हो जाता है जैसे जड़ काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है वैसे अधर्मी नष्ट भ्रष्ट
हो जाता है

 
सत्यधर्मार्यवृनेषु शौचे चैवारमेत् सदा
शिष्यांश्च शिष्याण्र्मेण वाग्बाहूदरसंयत: || मनु 4  .175

वेदोक्त सत्य धर्म अर्थात् पक्षपातरहित होकर सत्य के ग्रहण और असत्य
के परित्याग न्यायरूप वेदोक्त धर्मादि, आर्य अर्थात् उत्तम पुरुषों के गुण, कर्म, स्वभाव
और पवित्राता ही में सदा रमण करे वाणी, बाहू, उदर आदि अंगों का संयम अर्थात्
धर्म में चलाता हुआ धर्म से शिष्यों को शिक्षा किया करे ।

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