"पठन-पाठन की व्यवस्था" (व्यौहार भानु)७
महर्षि दयानन्द सरस्वती
उ0) मिथ्या को छोड़ के सत्य बोलें,
सरल रहें, अभिमान न करें, आज्ञा
पालन करें, स्तुति करें, निन्दा न करें, नीचे
आसन पर बैठें, ऊंचे न बैठें,
शान्त रहें, चपलता न करें, आचार्य की ताड़ना
पर प्रसन्न रहें, क्रोध कभी न
करें, जब कुछ वे पूछें, तो हाथ जोड़ के नम्र
होकर उत्तर देवें, घमण्ड से न
बोलें, जब वे शिक्षा करें चित्त देकर सुनें,
ठट्ठे में न उड़ावें।
शरीर और वस्त्र शुद्ध रक्खें, मैले कभी न रक्खें
। जो कुछ प्रतिज्ञा
==============
करें उसको पूरी करें। जितेन्द्रिय होवें। लम्पटपन
व्यभिचार कभी न करें।
उत्तमों का सदा मान करें, अपमान कभी न करें।
उपकार मान के कृतज्ञ
होवें, किसी के अनुपकारी होकर कृतघ्न न होवें।
पुरुषार्थी रहें, आलसी
कभी न हों । जिस-जिस कर्म से विद्या प्राप्ति
हो, उस-उस को करते जायें।
जो-जो बुरे काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि
विद्या विरोधी हों
उनको छोड़कर सदा उत्तम गुणों की कामना करें।
बुरे कामों पर क्रोध,
विद्याग्रहण में लोभ, सज्जनों में मोह, बुरे
कामों से भय, अच्छे काम न होने
में शोक करके विद्यादि शुभगुणों से आत्मा और
वीर्य आदि धातुओं की रक्षा
से जितेन्द्रिय हो शरीर का बल सदा बढ़ाते जायें
॥
प्र0) आचार्य विद्यार्थियों
के साथ कैसे वर्त्ते ?
उ0) जिस प्रकार से विद्यार्थी विद्वान्,
सुशील, निरभिमान, सत्यवादी,
धर्मात्मा, आस्तिक, निरालस्य, उद्योगी, परोपकारी,
वीर, धीर, गम्भीर,
पवित्राचरण, शान्तियुक्त, दमनशील, जितेन्द्रिय,
ऋजु, प्रसन्नवदन होकर
माता, पिता, आचार्य, अतिथि, बन्धु, मित्र, राजा,
प्रजा आदि के प्रियकारी
हों । जब किसी से बातचीत करें तब जो-जो उसके
मुख से अक्षर, पद,
वाक्य निकलें उनको शान्त होकर सुनके प्रत्युत्तर
देवें । जब कभी कोर्इ बुरी
चेष्टा, मलिनता, मैले वस्त्रधारण, बैठने उठने
में विपरीताचरण, निन्दा,
र्इष्र्या, द्रोह, विवाद, लड़ार्इ, बखेड़ा, चुगली
किसी पर मिथ्यादोष लगाना,
चोरी, जारी, अनभ्यास, आलस्य, अतिनिद्रा, अतिभोजन,
अतिजागरण, व्यर्थ
खेलना, इधर, उधर अट्ट सट्ट मारना, विषयसेवन,
बुरे व्यवहारों की कथा
करना वा सुनना, दुष्टों के संग बैठना आदि दुष्ट
व्यवहार करे तो उसको
यथा·पराध कठिन दण्ड देवे । इसमें प्रमाण=
सामृतै: पाणिभिघ्र्नन्ति गुरवो
न विषोक्षितै: ।
लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो
गुणा: ॥1 ॥
महाभाष्य अ0 8 । पा0 1 । सू0 8 । आ0 1 ॥
आचार्य लोग अपने विद्यार्थियों को विद्या और
सुशिक्षा होने के लिए
प्रेमभाव से अपने हाथों से ताड़ना करते हैं क्योंकि
सन्तान और विद्यार्थियों
का जितना लाड़न करना है उतना ही उनके लिए बिगाड़
और जितनी ताड़ना
करनी है, उतना ही उनके लिए सुधार है परन्तु ऐसी
ताड़ना न करें कि जिससे
अंगभंग वा मर्म में लगने से विद्यार्थी वा लड़के-लड़की
लोग व्यथा को प्राप्त
हो जायें ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें