धर्म और आर्यः----
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सदाचार-निष्ठ पुरुषों को आर्य (श्रेष्ठ) कहते हैं। मनुष्यों के जीवन में , उनके शरीर, इन्द्रिय, मन-बुद्धि एवं उनके सखोपभोग की वस्तुओं में पशुओं की अपेक्षा विशेष परिष्कार (अर्थात् संस्कार) अपेक्षित है। इनमें पूर्णतया संस्कृत पुरुष ही आर्य कहलाते हैं। यहाँ तक कि जब तक मनुष्य उचित संस्कैरों से पूर्ण संस्कृत (विशुद्ध) न हो जाएँ, तब तक वे सच्चे आर्य नहीं कहला सकते। इसीलिए महाभारत में कहा है कि मनुष्य सदाचार से ही आर्य होता है, धन और विद्या से नहीं,
"वृत्तेन हि भवत्यार्यो न धनेन न विद्यया।" (महाभारत, उद्योगपर्व--90.53)
अतः जो अनिन्द्य आचरण वाले चरित्रवान् पुरुष होते हैं, वे लोग "आर्य" कहलाते हैं और निन्द्य कर्म करने वालों को "अनार्य" कहते हैं।
आर्यता मानव-जीवन का सुपरिष्कृत स्वरूप है। वह मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। राजनीति में भी आर्यता की मनुष्य का सर्वोत्तम गुण बतलाया हैः---"आर्यता पुरुषज्ञानम्"। इत्यादि।
आर्य-शब्द की सिद्धिः---
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आर्य शब्द ऋ गतौ धातु से ण्यत् प्रत्यय करने से सिद्ध होता है। इसकी व्युत्त्पत्ति हैः---
(1.)अर्यते सेव्यत्वेन गम्यते, इति आर्यः। अर्थात् जिनके सच्चरित्र से प्रभावित होकर संसार के लोग उनके सेवक बन जाते हैं, उनके सद्गुणों को ग्रहण करते हैं, उन्हें आर्य कहते हैं।
(2.) आराद् यातः आर्यः। अर्थात् जो ग्राम्य दोषों से, असभ्यता से दूर हो गया हो, यानी पूर्ण सभ्य बन गया हो, वह आर्य कहलाता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा हैः--
"कर्तव्यमाचरन् काममकर्तव्यमनाचरन्।
तिष्ठति प्रकृताचारे स वा आर्य इति स्मृतः।।"
(वसिष्ठ-स्मृतिः)
"कुलं शीलं दया दानं धर्मः सत्यं कृतज्ञता।
अद्रोह इति येष्वेतत् तान् आर्यान् सम्प्रचक्षते।।"
(भरतमुनिः)
भगवान् शंकर के अनुसार आर्यः-----
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इसीलिए भगवान् शङ्कराचार्य ने आपस्तम्ब-धर्म-सूत्र में आर्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए अपनी व्याख्या में कहा हैः---
"आर्याणां भावः अक्षुद्रता।"
इसका अभिप्राय यह है कि क्षुद्रता को अनार्यता कहते है और महत्ता को आर्यता। इसीलिए महाकवि भारवि ने कहा हैः---
"समुन्नयन् भूतिमनार्यसंगमाद् वरं विरोधोsपि समं महात्मभिः।"
आर्य-शब्द के अर्थः----
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आर्य-शब्द के दश अर्थ होते हैः---
(1.) पूज्य,
(2.) श्रेष्ठ,
(3.) गुरु,
(4.) उदारचरित्र,
(5.) स्वामी,
(6.) श्रेष्ठ-कुलोत्पन्न,
(7.) मित्र,
(8.) सम्मान्य,
(9.) शान्तचित्त,
(10.) सङ्गत।
इसीलिए हमारे संस्कृत-वाङ्मय में आर्यदेश (आर्याणां वासार्हो देशः आर्यावर्तादिः।),
आर्यधर्म (आर्याणां धर्मः--सदाचारः),
आर्यपथ (आर्याणां पन्थाः),
आर्यवृत्त (आर्यस्य वृत्तम्। आर्यं श्रेष्ठं वृत्तं यस्य सः।) (मनुः---"सत्यधर्मार्यवृत्ते च शौचे चैवारमेत् सदा।"),
आर्यवेश (आर्याणां वेशः, आर्याः प्रायो सत्र सः),
आर्यप्राय (आर्यावर्तादिः।)
इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसीलिए मनु महाराज ने कहा हैः----
"जाङ्गलं सस्यसम्पन्नम् आर्यप्रायमनाविलम्।
वश्यमानतसामन्तं स्वाजीव्यं देशमावसेत्।।"
महर्षि वाल्मीकि ने मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम जी को आर्य कहा हैः---
"सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः।
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शनः।।"
(वा.रा.बा.का.1.16)
इस श्लोक की व्याख्या में गोविन्गराज ने लिखा हैः---
"आर्य इति, आङ् पूर्वाद् ऋ गतौ इत्यस्माद् धातोः कर्मणि यत् प्रत्ययः। अर्तुं योग्यः आर्यः। अभिगन्तुमर्ह इत्यर्थः। किं सतामेव ? नेत्याह--सर्वसमः। जातिगुणवृत्त्यादितारतम्यं विना सर्वेषामाश्रयणीयत्वे तुल्यः।
इसीलिए तिलक ने यहाँ अपनी टीका में आर्य-शब्द का अर्थ "सर्वपूज्य" लिखा हैः---"आर्यः सर्वपूज्यः।"
महर्षि चाणक्य ने कहा हैः---
"स्वल्पोपकारकृतेsपि प्रत्युपकारं कर्तमार्यो जागर्ति।"
(चा. सू. 6.32)
"अनार्य-सङ्गमाद् वरमार्यशत्रुता।"
(चा. सू. 7.12)
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सदाचार-निष्ठ पुरुषों को आर्य (श्रेष्ठ) कहते हैं। मनुष्यों के जीवन में , उनके शरीर, इन्द्रिय, मन-बुद्धि एवं उनके सखोपभोग की वस्तुओं में पशुओं की अपेक्षा विशेष परिष्कार (अर्थात् संस्कार) अपेक्षित है। इनमें पूर्णतया संस्कृत पुरुष ही आर्य कहलाते हैं। यहाँ तक कि जब तक मनुष्य उचित संस्कैरों से पूर्ण संस्कृत (विशुद्ध) न हो जाएँ, तब तक वे सच्चे आर्य नहीं कहला सकते। इसीलिए महाभारत में कहा है कि मनुष्य सदाचार से ही आर्य होता है, धन और विद्या से नहीं,
"वृत्तेन हि भवत्यार्यो न धनेन न विद्यया।" (महाभारत, उद्योगपर्व--90.53)
अतः जो अनिन्द्य आचरण वाले चरित्रवान् पुरुष होते हैं, वे लोग "आर्य" कहलाते हैं और निन्द्य कर्म करने वालों को "अनार्य" कहते हैं।
आर्यता मानव-जीवन का सुपरिष्कृत स्वरूप है। वह मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। राजनीति में भी आर्यता की मनुष्य का सर्वोत्तम गुण बतलाया हैः---"आर्यता पुरुषज्ञानम्"। इत्यादि।
आर्य-शब्द की सिद्धिः---
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आर्य शब्द ऋ गतौ धातु से ण्यत् प्रत्यय करने से सिद्ध होता है। इसकी व्युत्त्पत्ति हैः---
(1.)अर्यते सेव्यत्वेन गम्यते, इति आर्यः। अर्थात् जिनके सच्चरित्र से प्रभावित होकर संसार के लोग उनके सेवक बन जाते हैं, उनके सद्गुणों को ग्रहण करते हैं, उन्हें आर्य कहते हैं।
(2.) आराद् यातः आर्यः। अर्थात् जो ग्राम्य दोषों से, असभ्यता से दूर हो गया हो, यानी पूर्ण सभ्य बन गया हो, वह आर्य कहलाता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा हैः--
"कर्तव्यमाचरन् काममकर्तव्यमनाचरन्।
तिष्ठति प्रकृताचारे स वा आर्य इति स्मृतः।।"
(वसिष्ठ-स्मृतिः)
"कुलं शीलं दया दानं धर्मः सत्यं कृतज्ञता।
अद्रोह इति येष्वेतत् तान् आर्यान् सम्प्रचक्षते।।"
(भरतमुनिः)
भगवान् शंकर के अनुसार आर्यः-----
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इसीलिए भगवान् शङ्कराचार्य ने आपस्तम्ब-धर्म-सूत्र में आर्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए अपनी व्याख्या में कहा हैः---
"आर्याणां भावः अक्षुद्रता।"
इसका अभिप्राय यह है कि क्षुद्रता को अनार्यता कहते है और महत्ता को आर्यता। इसीलिए महाकवि भारवि ने कहा हैः---
"समुन्नयन् भूतिमनार्यसंगमाद् वरं विरोधोsपि समं महात्मभिः।"
आर्य-शब्द के अर्थः----
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आर्य-शब्द के दश अर्थ होते हैः---
(1.) पूज्य,
(2.) श्रेष्ठ,
(3.) गुरु,
(4.) उदारचरित्र,
(5.) स्वामी,
(6.) श्रेष्ठ-कुलोत्पन्न,
(7.) मित्र,
(8.) सम्मान्य,
(9.) शान्तचित्त,
(10.) सङ्गत।
इसीलिए हमारे संस्कृत-वाङ्मय में आर्यदेश (आर्याणां वासार्हो देशः आर्यावर्तादिः।),
आर्यधर्म (आर्याणां धर्मः--सदाचारः),
आर्यपथ (आर्याणां पन्थाः),
आर्यवृत्त (आर्यस्य वृत्तम्। आर्यं श्रेष्ठं वृत्तं यस्य सः।) (मनुः---"सत्यधर्मार्यवृत्ते च शौचे चैवारमेत् सदा।"),
आर्यवेश (आर्याणां वेशः, आर्याः प्रायो सत्र सः),
आर्यप्राय (आर्यावर्तादिः।)
इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसीलिए मनु महाराज ने कहा हैः----
"जाङ्गलं सस्यसम्पन्नम् आर्यप्रायमनाविलम्।
वश्यमानतसामन्तं स्वाजीव्यं देशमावसेत्।।"
महर्षि वाल्मीकि ने मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम जी को आर्य कहा हैः---
"सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः।
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शनः।।"
(वा.रा.बा.का.1.16)
इस श्लोक की व्याख्या में गोविन्गराज ने लिखा हैः---
"आर्य इति, आङ् पूर्वाद् ऋ गतौ इत्यस्माद् धातोः कर्मणि यत् प्रत्ययः। अर्तुं योग्यः आर्यः। अभिगन्तुमर्ह इत्यर्थः। किं सतामेव ? नेत्याह--सर्वसमः। जातिगुणवृत्त्यादितारतम्यं विना सर्वेषामाश्रयणीयत्वे तुल्यः।
इसीलिए तिलक ने यहाँ अपनी टीका में आर्य-शब्द का अर्थ "सर्वपूज्य" लिखा हैः---"आर्यः सर्वपूज्यः।"
महर्षि चाणक्य ने कहा हैः---
"स्वल्पोपकारकृतेsपि प्रत्युपकारं कर्तमार्यो जागर्ति।"
(चा. सू. 6.32)
"अनार्य-सङ्गमाद् वरमार्यशत्रुता।"
(चा. सू. 7.12)
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