ब्रह्म या ईश्वर
– जिसके गुण ,कर्म, स्वाभाव और स्वरुप सत्य ही हैं जो केवल चेतनमात्र वस्तु है
तथा जो एक अद्वितीय सर्वशक्तिमान , निराकार , सर्वत्र व्यापक , अनादि और
अनन्त आदि सत्यगुण वाला है और जिसका स्वभाव अविनाशी , ज्ञानी , आनन्दी , शुद्ध
न्यायकारी , दयालु और अजन्मादि है । जिसका कर्म जगत की उत्पत्ति , पालन और
विनाश करना तथा सर्वजीवों को पाप , पुण्य के फल ठीक ठीक पहुचाना है; उसको ईश्वर
कहते हैं । जिसका सर्व श्रेष्ठ नाम ओ३म है।
तस्य वाचकः प्रणवः ॥ १६ ॥ अ॰१। पा॰१।सू॰२७ ॥
तज्जपस्तदर्थभावनम ॥ १७ ॥ अ॰१। पा॰१।सू॰२८ ॥
व्याख्या ---- जो ईश्वर का ओंकार नाम है सो पिता पुत्र के सम्बन्ध के समान है और
यह नाम ईश्वर को छोङ के दूसरे अर्थ का वाची नहीं हो सकता । ईश्वर के जितने नाम
हैं , उनमें से ओंकार सब से उत्तम नाम है ॥
इसी नाम का जप अर्थात स्मरण और उसी का अर्थविचार सदा करना चाहिये कि
जिससे उपासक का मन एकाग्रता ,प्रसन्नता और ज्ञान को यथावत प्राप्त होकर स्थिर हो ।
जिससे उसके ह्रदय में परमात्मा का प्रकाश और परमेश्वर की प्रेम-भक्ति सदा बढ्ती जाय ॥
– जिसके गुण ,कर्म, स्वाभाव और स्वरुप सत्य ही हैं जो केवल चेतनमात्र वस्तु है
तथा जो एक अद्वितीय सर्वशक्तिमान , निराकार , सर्वत्र व्यापक , अनादि और
अनन्त आदि सत्यगुण वाला है और जिसका स्वभाव अविनाशी , ज्ञानी , आनन्दी , शुद्ध
न्यायकारी , दयालु और अजन्मादि है । जिसका कर्म जगत की उत्पत्ति , पालन और
विनाश करना तथा सर्वजीवों को पाप , पुण्य के फल ठीक ठीक पहुचाना है; उसको ईश्वर
कहते हैं । जिसका सर्व श्रेष्ठ नाम ओ३म है।
तस्य वाचकः प्रणवः ॥ १६ ॥ अ॰१। पा॰१।सू॰२७ ॥
तज्जपस्तदर्थभावनम ॥ १७ ॥ अ॰१। पा॰१।सू॰२८ ॥
व्याख्या ---- जो ईश्वर का ओंकार नाम है सो पिता पुत्र के सम्बन्ध के समान है और
यह नाम ईश्वर को छोङ के दूसरे अर्थ का वाची नहीं हो सकता । ईश्वर के जितने नाम
हैं , उनमें से ओंकार सब से उत्तम नाम है ॥
इसी नाम का जप अर्थात स्मरण और उसी का अर्थविचार सदा करना चाहिये कि
जिससे उपासक का मन एकाग्रता ,प्रसन्नता और ज्ञान को यथावत प्राप्त होकर स्थिर हो ।
जिससे उसके ह्रदय में परमात्मा का प्रकाश और परमेश्वर की प्रेम-भक्ति सदा बढ्ती जाय ॥
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