सोमवार, 26 मई 2014

" सृष्टि व्युत्पत्ति विषय " सत्यार्थ प्रकाश


" सृष्टि व्युत्पत्ति विषय " सत्यार्थ प्रकाश

  "महर्षि दयानन्द सरस्वती"

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा त्त ।
यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अगं वेद यदि वा त्त वेद ।। १ ।।
--------ऋ॰। म॰१०। सू॰१२९। मं॰७ ॥

अर्थात हे (अगं) मनुष्य ! जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुर्इ है जो धारण
और प्रलयकर्त्ता है जो इस जगत् का स्वामी है जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति,
स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है उसको तू जान और दूसरे को
सृष्टिकर्त्ता मत मान ॥ १ ॥



तम आसीत्तमसा गहळमग्रेण्प्रवेफतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छयेनाभ्वपितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैवफम् ।। २ ।।
--------ऋ॰। मं॰१० सू॰१२९। मं॰३
 यह सब जगत् सृष्टि के पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के
अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख
एकदेशी आच्छादित था पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारणरूप से कार्यरूप
कर देता है ॥ २ ॥

 
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भतूस्य जात: पतिरके आसीत ।
स दाधर पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। ३ ।।
--------ऋ॰। मं॰१० सू॰१२१। मं॰ १॥

हे मनुष्यो ! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थो का आधार और जो यह जगत्
हुआ है और होगा उसका एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के
पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथिवी से लेके सूर्य्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया
है उस परमात्मा देव की प्रेम से भक्ति किया करें ॥ ३ ॥

 
पुरुष एवेदवेदः सर्व यद्भूतं यच्च भाव्य्म् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। ४ ।।
--------यजु: । अ॰३१ । मं॰२ ॥

हे मनुष्यो ! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव
का स्वामी जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है वही पुरुष इस सब भूत
भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है ॥ ४ ॥

 
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्मति ॥ ५ ॥ तैत्तिरीयोपनि॰ (भृगुवल्ली। अनु॰१)

जिस परमात्मा की रचना से ये सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं जिस से जीते और जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं वह ““ब्रह्म”” है उसके जानने की इच्छा
करो ॥ ५ ॥
 

जन्माद्यस्य यत: --------शारीरक सू॰ अ,१ (पा॰१) सू॰२॥
जिस से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है वही ““ब्रह्म”” जानने
योग्य है
प्रश्न---यह जगत् परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है वा अन्य से?
उत्तर---निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है परन्तु इसका उपादान
कारण प्रकृति है ।
प्रश्न---क्या प्रकृति परमेश्वर ने उत्पन्न नहीं की?
उत्तर---नहीं वह अनादि है ।
प्रश्न---अनादि किसको कहते और कितने पदार्थ अनादि हैं?
उत्तर---र्इश्वर, जीव और जगत् का कारण ये तीन अनादि है ।
प्रश्न---इसमें क्या प्रमाण है
उनर---
--------ऋ म॰१ । सू॰ १६४ मं २० ।।
शाश्वऋतीभ्यऋ: समापिभ्य: ।।न।। --------यजु:न अन जन मंन व।।

(द्वा) जो “ब्रह्म” और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ
सदृश (सयुजा) व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रातायुक्त सनातन
अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप
कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता है वह तीसरा
अनादि पदार्थ इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं (तयोरन्य:) इन
जीव और “ब्रह्म” में से एक जो “जीव” है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों
को (स्वानिद्वात्ति) अच्छे प्रकार भोगता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को
(अनश्नन्) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा
है जीव से र्इश्वर, र्इश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप, तीनों अनादि
हैं ॥
(शाश्वती॰) अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिये वेद द्वारा
परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध् किया है ॥
 

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बव्हीः प्रजा : सृजमानां स्वरूपाः ।
अजो ह्योको जुषमाणोण्नुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोण्न्य: ॥
यह उपनिषत् का वचन है। शे॰उप॰।अ॰४।मंत्र ५ ॥

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिन का जन्म कभी नहीं
होता और न कभी जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण है । इन का कारण
कोर्इ नहीं इस अनादि प्रकृति का भोग, अनादि जीव करता हुआ फंसता है और
उस में परमात्मा न फंसता और न उस का भोग करता है ॥
 

प्रश्न---सदेव सोम्येदमग्र आसीत् ॥१॥
असद्वा इदमग्र आसीत्॥२॥
आत्मा वा इदमग्र आसीत् ॥३॥
“ब्रह्म” वा इदमग्र आसीत ॥४॥
ये उपनिषदों के वचन हैं।
हे श्वेतकेतो ! यह जगत् सृष्टि के पूर्व सत् ॥१॥ असत् ॥२॥ आत्मा ॥३॥
और “ब्रह्म” रूप था ॥४॥ पश्चात् --------
तदैक्षत बहु: स्यां प्रजायेयेति ॥१॥
सोण्कामयत बहु: स्यां प्रजायेयेति ॥२॥ --------यह तैनिरीयोपनिषत् का वचन है।
वही परमात्मा अपनी इच्छा से बहुरूप हो गया है ॥१-२॥
--------छान्दोग्य उपनिन----

 

हे श्वेतकेतो! अन्नरूप पृथिवी कार्य से जलरूप मूल कारण को तू जान
कार्यरूप जल से तेजोरूप मूल और तेजोरूप कार्य से सूद्रूप कारण जो नित्य प्रकृति
है उस को जान ॥ यही सत्यस्वरूप प्रकृति सब जगत् का मूल घर और स्थिति का
स्थान है । यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और जीवात्मा, “ब्रह्म” और
प्रकृति में लीन होकर वर्नमान था , अभाव न था ॥ और जो (सर्व खलु॰) यह वचन
ऐसा है जैसा कि ‘कहीं की इट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनवा ! जोड़ा’ ऐसी
लीला का है क्योंकि--------
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सर्व खल्विदं “ब्रह्म” तज्जलानिति शान्त उपासीत --------छान्दोग्य
और--------
नेह नानास्ति किन्च ॥ --------यह कठवल्ली का वचन है

 

जैसे शरीर के अग् जब तक शरीर के साथ रहते हैं तब तक काम के
और अलग होने से निकम्मे हो जाते हैं, वैसे ही प्रकरणस्थ वाक्य सार्थक और प्रकरण
से अलग करने वा किसी अन्य के साथ जोड़ने से अनर्थक हो जाते है । सुनो!
इस का अर्थ यह है--------हे जीव! तू उस “ब्रह्म” की उपासना कर जिस “ब्रह्म” से जगत्
की उत्पत्ति, स्थिति और जीवन होता है जिस के बनाने और धारण से यह सब
जगत् विद्यमान हुआ है वा “ब्रह्म” से सहचरित है उस को छोड़कर दूसरे की उपासना
न करनी इस चेतनमात्रा अखण्डैकरस “ब्रह्म”स्वरूप में नाना वस्तुओं का मेल नहीं
है किन्तु ये सब पृथक----पृथक स्वरूप में परमेश्वर के आवमार में स्थित है ।
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प्रश्न---जगत् के कारण कितने होते हैं?
उत्तर---तीन एक निमित्त, दूसरा उपादान, तीसरा साधारण निमित्त
कारण उस को कहते हैं कि जिस के बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने,
आप स्वयं बने नहीं दूसरे को प्रकारान्तर बना देवे दूसरा उपादान कारण उस
को कहते हैं जिस के विना कुछ न बने वही अवस्थान्तर रूप होके बने बिगड़े
भी तीसरा साधारण कारण उस को कहते हैं कि जो बनाने में साध्न और
साधारण निमित्त हो
निमित्त कारण दो प्रकार के होते है । एक--------सब सृष्टि को कारण से बनाने,
धरने और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण
परमात्मा दूसरा--------परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थो को लेकर अनेकविध् कार्यान्तर
बनाने बनाने वाला साधारण निमित्त कारण जीव ।
उपादान कारण--------‘प्रकृति’, परमाणु जिस को सब संसार के बनाने की सामग्री
कहते है । वह जड़ होने से आपसे आप न बन और न बिगड़ सकती है किन्तु
दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है कहीं----कहीं जड़ के निमित्त
से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी
में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के
संयोग से बिगड़ भी जाते हैं परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना और वा बिगड़ना
परमेश्वर और जीव के आधीन है ॥
जब कोर्इ वस्तु बनार्इ जाती है तब जिन----जिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन,
बल, हाथ और नाना प्रकार के साध्न और दिशा, काल और आकाश साधारण
कारण जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार निमित्त, मिट्टी उपादान और दण्ड चक्र
आदि सामान्य निमित्त; दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया
आदि निमित्त साधारण और निमित्त कारण भी होते है । इन तीन कारणों के विना
कोर्इ भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती है ।

==================== प्रश्न---जगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है?
उत्तर---नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है?
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प्रश्न---जो न बनाता तो आनन्द में बना रहता और जीवों को भी सुख----दु:ख
प्राप्त न होता
उत्तर---यह आलसी और दरिं लोगों की बातें हैं पुरुषाथ्र्ाी की नहीं और
जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दु:ख है? जो सृष्टि के सुख दु:ख की तुलना
की जाय तो सुख कर्इ गुना अध्कि होता और बहुत से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के
साध्न कर मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते है । प्रलय में निकम्मे जैसे सुषुप्ति
में पडे़ रहते हैं वैसे रहते हैं और प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के किये पाप पुण्य
कमो का फल र्इश्वर वैफसे दे सकता और जीव क्यों कर भोग सकते?
जो तुम से कोर्इ पूछे कि आंख के होने में क्या प्रयोजन है? तुम यही कहोगे
देखना तो जो र्इश्वर में जगत् की रचना करने का विज्ञान, बल और क्रिया है उस
का क्या प्रयोजनऋ विना जगत् की उत्पत्ति करने के ? दूसरा कुछ भी न कह सकोगे
और परमात्मा के न्याय, धारण, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब
जगत् को बनावे उस का अनन्त सामर्थ्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और
व्यवस्था करने ही से सफल है जैसे नेत्रा का स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर
का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर
परोपकार करना है
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प्रश्न---बीज पहले है वा वृक्ष?
उत्तर---बीज क्योंकि बीज, हेतु, निदान, निमित्त और कारण इत्यादि शब्द
एकार्थवाचक है । कारण का नाम बीज होने से कार्य के प्रथम ही होता है
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प्रश्न---जब परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है तो वह कारण और जीव को भी
उत्पन्न कर सकता है जो नहीं कर सकता तो सर्वशक्तिमान् भी नहीं रह सकता?

उत्तर---सर्वशक्तिमान् का अर्थ पूर्व लिख आये हैं परन्तु क्या सर्वशक्तिमान्
वह कहाता है कि जो असम्भव बात को भी कर सके? जो कोर्इ असम्भव बात
अर्थात् जैसा कारण के विना कार्य को कर सकता है तो विना कारण दूसरे र्इश्वर
की उत्पत्ति कर और स्वयं मृत्यु को प्राप्तऋ जड़, दु:खी, अन्यायकारी, अपवित्रा और
कुकर्मी आदि हो सकता है वा नहीं? जो स्वाभाविक नियम अर्थात् जैसा अग्नि
उष्ण, जल शीतल और पृथिव्यादि सब जड़ों को विपरीत गुणवाले र्इश्वर भी नहीं
कर सकता जैसे आप जड़ नहीं हो सकता वैसे जड़ को चेतन भी नहीं कर
सकता है ।
और र्इश्वर के नियम सत्य और पूरे हैं इसलिये परिवर्तन नहीं कर सकता
इसलिये सर्वशक्तिमान् का अर्थ इतना ही है कि परमात्मा विना किसी के सहाय
के अपने सब कार्य पूर्ण कर सकता है
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प्रश्न---र्इश्वर साकार है वा निराकार ? जो निराकार है तो विना हाथ
आदि साधनों के जगत् को न बना सकेगा और जो साकार है तो कोर्इ दोष नहीं
आता?

उत्तर---र्इश्वर निराकार है जो साकार अर्थात् शरीरयुक्त है वह र्इश्वर
ही नहीं क्योंकि वह परिमित शक्तियुक्त, देश काल वस्तुओं में परिच्छिन्न, क्षुध,
तृषा, छेदन, भेदन, शीतोष्ण, ज्वर, पीड़ादि सहित होवे उस में जीव के विना र्इश्वर
के गुण कभी नहीं घट सकते जैसे तुम और हम साकार अर्थात् शरीरधरी हैं इस
से त्रासरेणु, अणु, परमाणु और प्रकृति को अपने वश में नहीं ला सकते और न

उन सूक्ष्म पदार्थो को पकड़ कर स्थूल बना सकते है । वैसे ही स्थूल देहधरी परमेश्वर
भी उन सूक्ष्म पदार्थो से स्थूल जगत् नहीं बना सकता
जो परमेश्वर भौतिक इन्द्रियगोलक हस्त पादादि अवयवों से रहित है परन्तु
उस की अनन्त शक्ति बल पराक्रम हैं उन से सब काम करता है जो जीव और
प्रकृति से कभी न हो सकते जब वह प्रकृति से भी सूक्ष्म और उन में व्यापक
है तभी उन को पकड़ कर जगदाकार कर देता है और सर्वगत होने से सब
का धारण और प्रलय भी कर सकता है
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प्रश्न---जैसे मनुष्यादि के मां बाप साकार हैं उन का सन्तान भी साकार
होता है जो ये निराकार होते तो इनके लड़के भी निराकार होते वैसे परमेश्वर
निराकार हो तो उस का बनाया जगत् भी निराकार होना चाहिये
उत्तर---यह तुम्हारा प्रश्न लड़के के समान है। क्योंकि हम अभी यह
कह चुके हैं कि परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं किन्तु निमित्त कारण है।
और जो स्थूल होता है वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है। और
वे सर्वथा निराकार नहीं किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य काव्र्य से सूक्ष्म आकार
रखते हैं।
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प्रश्न---क्या कारण के विना परमेश्वर कार्य को नहीं कर सकता?
उत्तर---नहीं । क्योंकि जिस का अभाव अर्थात् जो वर्तमान नहीं है उस

का भाव वर्तमान होना सर्वथा असम्भव है जैसे कोर्इ गपोड़ा हांक दे कि मैंने वन्ध्या
के पुत्र और पुत्री का विवाह देखा, वह नरश्र्डंग का धनुष और दोनों खपुष्प की
माला पहिरे हुए थे मृगतृष्णिका के जल में स्नान करते और गन्ध्र्वनगर में रहते
थे वहां बपल के विना वर्षा पृथिवी के विना सब अन्नों की उत्पत्ति आदि होती
थी वैसा ही कारण के विना कार्य का होना असम्भव है
जैसे कोर्इ कहे कि----- ‘मम मातापितरौ न स्तोण्हमेवमेव जात: मम मुखे
जिव्हा नास्ति वदामि च ।’
अर्थात् मेरे माता----पिता न थे ऐसे ही मैं उत्पन्न हुआ
हूं । मेरे मुख में जीभ नहीं है, परन्तु बोलता हूं बिल में सर्प न था निकल आया ।
मैं कहीं नहीं था, ये भी कहीं न थे, और हम सब जने आये है । ऐसी असम्भव
बात प्रमत्तगीत अर्थात् पागल लोगों की है ।
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प्रश्न---जो कारण के विना कार्य नहीं होता तो कारण का कारण कौन
है ?
उत्तर---जो केवल कारणरूप ही हैं वे काव्र्य किसी के नहीं होते और
जो किसी का कारण और किसी का कार्य होता है वह दूसरा कहाता है जैसे पृथिवी
घर आदि का कारण और जल आदि का कार्य होता है परन्तु जो आदिकारण प्रकृति
है वह अनादि है
मूले मूलाभावादमूलं मूलम् --------सांख्य सू॰१.६७
मूल का मूल अर्थात् कारण का कारण नहीं होता इस से अकारण सब
काव्यो का कारण होता है क्योंकि किसी काव्र्य के आरम्भ समय के पूर्व तीनों
कारण अवश्य होते है । जैसे कपड़े बनाने के पूर्व तन्तुवाय, रुर्इ का सूत और नलिका
आदि पूर्व वर्नमान होने से वस्त्रा बनता है वैसे जगत् की उत्पत्ति के पूर्व परमेश्वर,
प्रकृति, काल और आकाश तथा जीवों के अनादि होने से इस जगत् की उत्पत्ति
होती है यदि इन में से एक भी न हो तो जगत् भी न हो
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प्रश्न---इस जगत् का कर्त्ता न था, न है और न होगा किन्तु अनादि काल
से यह जैसा का वैसा बना है न कभी इस की उत्पत्ति हुर्इ न कभी विनाश होगा
उत्तर---विना कर्त्ता के कोर्इ भी क्रिया वा क्रियाजन्य पदार्थ नहीं बन
सकता जिन पृथिवी आदि पदार्थो में संयोग विशेष से रचना दीखती है वे अनादि
कभी नहीं हो सकते और जो संयोग से बनता है वह संयोग के पूर्व नहीं होता
और वियोग के अन्त में नहीं रहता जो तुम इस को न मानो तो कठिन से कठिन
पाषाण हीरा और पोलाद आदि तोड़, टुकड़े कर, गला वा भस्म कर देखो कि इन
में परमाणु पृथक----पृथक मिले हैं वा नहीं? जो मिले हैं तो वे समय पाकर अलग----अलग
भी अवश्य होते हैं नन
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प्रश्न---अनादि र्इश्वर कोर्इ नहीं किन्तु जो योगाभ्यास से अणिमादि ऐश्वर्य
को प्राप्त होकर सर्वज्ञादि गुणयुक्त केवल ज्ञानी होता है वही जीव परमेश्वर
कहाता है

उत्तर---जो अनादि र्इश्वर जगत् का प्ष्टा न हो तो साधनों से सिद्ध होने
वाले जीवों का आधार जीवनरूप जगत्, शरीर और इन्ंियों के गोलक वैफसे बनते?
इनके विना जीव साध्न नहीं कर सकता जब साध्न न होते तो सिद्ध कहां से
होता?
जीव चाहै जैसा साध्न कर सिद्ध होवे तो भी र्इश्वर की जो स्वयं सनातन
अनादि सिद्धि हैजिस में अनन्त सिद्धि हैउसके तुल्य कोर्इ भी जीव नहीं हो
सकता क्योंकि जीव का परम अवधि तक ज्ञान बढ़े तो भी परिमित ज्ञान और
सामर्थ्यवाला होता है अनन्त ज्ञान और सामर्थ्य वाला कभी नहीं हो सकता
देखो! कोर्इ भी आज तक र्इश्वरकृत सृष्टिक्रम को बदलनेहारा नहीं हुआ
है और न होगा जैसा अनादि सिद्ध परमेश्वर ने नेत्रा से देखने और कानों से सुनने
का निबन्ध् किया है इस को कोर्इ भी योगी बदल नहीं सकता जीव र्इश्वर कभी
नहीं हो सकता ।
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प्रश्न---मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई या पृथिवी आदि की?
उत्तर---पृथिवी आदि की क्योंकि पृथिव्यादि के विना मनुष्य की स्थिति
और पालन नहीं हो सकता
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प्रश्न---सृष्टि की आदि में एक वा अनेक मनुष्य उत्पन्न किये थे वा
क्या?

उत्तर---अनेक क्योंकि जिन जीवों के कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने
के थे उन का जन्म सृष्टि की आदि में र्इश्वर देता है क्योंकि
‘मनुष्या ऋषयश्च ॥ यजुर्वेद अ॰३१
ये ततो मनुष्या अजायन्त’
यह यजुर्वेद में लिखा है इस प्रमाण से यही निश्चय
है कि आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों, सहस्रों मनुष्य उत्पन्न हुए । और सृष्टि में
देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक मा ! बाप के सन्तान है ।
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प्रश्न---आदि सृष्टि में मनुष्य आदि की बाल्य, युवा वा वृद्धावस्था में
सृष्टि हुई थी अथवा तीनों में?

उत्तर---युवावस्था में क्योंकि जो बालक उत्पन्न करता तो उनके पालन
के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और वृद्धावस्था में बनाता तो मैथुनी सृष्टि
न होती इसलिये युवावस्था में सृष्टि की है ।
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प्रश्न---कभी सृष्टि का प्रारम्भ है वा नहीं?
उत्तर---नहीं जैसे दिन के पूर्व रात और रात के पूर्व दिन तथा दिन
के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है, इसी प्रकार सृष्टि के
पूर्व प्रलय और प्रलय के पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के आगे
सृष्टि अनादि काल से चक्र चला आता है इस का आदि वा अन्त नहीं, किन्तु
जैसे दिन वा रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है उसी प्रकार सृष्टि और
प्रलय का आदि अन्त होता रहता है क्योंकि जैसे परमात्मा, जीव, जगत् का कारण
तीन स्वरूप से अनादि हैं वैसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय प्रवाह से अनादि
है । जैसे नदी का प्रवाह वैसा ही दीखता है, कभी सूख जाता, कभी कभी नहीं
दीखता फिर बरसात में दीखता और उष्णकाल में नहीं दीखता ऐसे व्यवहारों को
प्रवाहरूप जानना चाहिए जैसे परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव अनादि हैं वैसे
ही उसके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करना भी अनादि है । जैसे कभी र्इश्वर
के गुण, कर्म, स्वभाव का आरम्भ और अन्त नहीं इसी प्रकार उस के कर्त्तव्य कमो
का भी आरम्भ और अन्त नहीं।
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प्रश्न---र्इश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म, किन्हीं को सिंहादि क्रूर
जन्म किन्हीं को हरिण, गाय आदि पशु किन्हीं को वृक्षादि, छमि, कीट, पतंगदि
जन्म दिये है । इस से परमात्मा में पक्षपात आता है?

उत्तर---पक्षपात नहीं आता क्योंकि उन जीवों के पूर्व सृष्टि में किये
हुए कर्मानुसार व्यवस्था करने से जो कर्म के विना जन्म देता तो पक्षपात आता ।
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प्रश्न---मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई?
उत्तर---त्रिविष्टप अर्थात् जिस को ‘तिब्बत’ कहते है ।
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प्रश्न---आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक?
उत्तर---एक मनुष्य जाति थी पश्चात् ‘विजापिनीह्यार्य्यान ये च दस्यपिव:’ ॥
यह ऋग्वेद का वचन है श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान् देव और दुष्टों के दस्यु
अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए ‘उत शूद्र उतार्ये’
वेद----वचन आर्यो में पूर्वोक्त प्रकार से ब्रांण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए
द्विज विद्वानों का नाम आर्य और मूखो का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात् अनाड़ी
नाम हुआ
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प्रश्न---फिर वे यहा ! कैसे आये?
उत्तर---जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव अविद्वान् जो
असुर, उन में सदा लड़ार्इ बखेड़ा हुआ किया, जब बहुत उपंव होने लगा तब आर्य
लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकर यहीं आकर बसे इसी
से देश का नाम ‘आर्यावर्त्त’ हुआ ।
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प्रश्न---आर्यावर्त्त की अवधि कहां तक है?
उत्तर---आसमुांनु वै पूर्वादासमुांनु पश्चिमात्
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावन विदुर्बुध: ॥
सरस्वतीदृषत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्
तं देवनिर्मितं देशमार्यावन प्रचक्षते ॥
मनु २.२२ ,२२.१७

 उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र ॥
तथा सरस्वती पश्चिम में ‘अटक’ नदी, पूर्व में ‘दृषद्वती’ जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़
से निकल के बंगाल के ‘आसाम’ के पूर्व और के पश्चिम ओर होकर दक्षिण
के समुद्र में मिली है जिस को “ब्रह्म” पुत्रा कहते हैं और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल
के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में अटक मिली है हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण
और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन
सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया
और आर्यजनों के निवास करने से “आर्यावर्त्त” कहाया है ।
========
प्रश्न---प्रथम इस देश का नाम क्या था और इस में कौन बसते थे?
उत्तर---इस के पूर्व इस देश का नाम कोर्इ भी नहीं था और न कोर्इ
आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे । क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ
काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे ।
===
प्रश्न---कोर्इ कहते हैं कि ये लोग र्इरान से आये इसी से इन लोगों का
नाम आर्य हुआ है इन के पूर्व यहां जंगली लोग बसते थे कि जिन को असुर
और राक्षस कहते थे आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उन का जब
संग्राम हुआ उसका नाम देवासुर संग्राम कथाओं में ठहराया ?
उत्तर---यह बात सर्वथा झूठ है क्योंकि--------
वि जापिनीह्यार्यान् ये च दस्यपिवो बर्हिष्मपिते रन्धया शासदव्रतान् ।।
--------ऋग्वेद मं१ । सू॰५१ । मं॰८ ॥
उत शूद्र उतार्ये ।। अथर्ववेद १९.६२.१--------यह भी वेद का प्रमाण है।

यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धर्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और
इन से विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधर्मिक और अविद्वान्
है तथा ब्रांण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात्
अनाड़ी है
जब वेद ऐसे कहता है तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान्
लोग कभी नहीं मान सकते और देवासुर संग्राम में आर्यावर्तीय अर्जुन तथा महाराजा
दशरथ आदि हिमालय पहाड़ में आर्य और दस्यु म्लेच्छ असुरों का जो युद्ध हुआ
थाऋ उस में देव अर्थात् आयो की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक
हुए थे इस से यही सिद्ध होता है कि आर्यावर्त्त के बाहर चारों ओर जो हिमालय
के पूर्व आग्नेय, दक्षिण, नैर्प्त, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, र्इशान देश में मनुष्य रहते
हैं उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है क्योंकि जब----जब हिमालय प्रदेशस्थ आयो
पर लड़ने को चढ़ार्इ करते थे तब----तब यहां के राजा महाराजा लोग उन्हीं उत्तर आदि
देशों में आयो के सहायक होते थे। और श्रीरामचन्ं जी से दक्षिण में युद्ध हुआ
है उस का नाम देवासुर संग्राम नहीं है किन्तु उस को राम----रावण अथवा आर्य
और राक्षसों का संग्राम कहते है ।
किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग र्इरान
से आये और यहां के जग्लियों को लड़कर, जय पाके, निकाल के इस देश के
राजा हुए पुन: विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और--------
आर्यवाचो म्लेच्छवाच: सर्वे ते दस्यव: स्मृता: ॥१॥मनु॰१०.४५
म्लेच्छदेशस्त्वत: पर: ॥ मनु.२.२३

जो आर्यावर्त्त देश से भिन्न देश हैं वे दस्युदेश और म्लेच्छदेश कहाते
है । इस से भी यह सिद्ध होता है कि आर्यावर्त्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर र्इशान,
उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम दस्यु और म्लेच्छ तथा
असुर है और नैर्प्त, दक्षिण तथा आग्नेय दिशाओं में आर्यावर्त्त देश से भिन्न रहने
वाले मनुष्यों का नाम राक्षस है
अब भी देख लो! हबशी लोगों का स्वरूप भयंकर जैसाकि राक्षसों का वर्णन
किया है वैसा ही दीख पड़ता है और आर्यावर्त्त की सूध् पर नीचे रहने वालों का
नाम नाग और उस देश का नाम पाताल इसलिये कहते हैं कि वह देश आर्यावर्तीय
मनुष्यों के पाद अर्थात् पग के तले है और उन के नागवंशी अर्थात् नाग नाम वाले
पुरुष के वंश के राजा होते थे उसी की उलोपी राजकन्या से अजुर्त्त का विवाह
हुआ था अर्थात् इक्ष्वाकु से लेकर कौरव पाण्डव तक सर्व भूगोल में आयो का
राज्य और वेदों का थोड़ा----थोड़ा प्रचार आर्यावर्त्त से भिन्न देशों में भी रहा
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इस में यह प्रमाण है कि ब्रां का पुत्रा विराट्, विराट् का मनु, मनु के
मरीच्यादि दश इनके स्वायम्भुवादि सात राजा और उन के सन्तान इक्ष्वाकु आदि
राजा जो आर्यावर्त्त के प्रथम राजा हुए जिन्होंने यह आर्यावर्त्त बसाया है ।
अब अभाग्योदय से और आव्यो के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध्
से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त्त में भी
आव्यो का अखण्ड, स्वतन्त्रा, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है जो कुछ
है सो भी विदेशियों के पादावन्त हो रहा है कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्रा है । दुर्दिन
जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है कोर्इ
कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता
है अथवा मत----मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य
प्रजा पर पिता माता के समान छपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों
का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है परन्तु भिन्न----भिन्न भाषा, पृथक----पृथक
शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध् छूटना अति दुष्कर है विना इसके छूटे परस्पर
का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों
में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है ।
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प्रश्न---जगत् की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ?
उत्तर---एक अर्ब, छानवें क्रोड़, कर्इ लाख और कर्इ सहस्र वर्ष जगत् की
उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए है । इस का स्पष्ट व्याख्यान मेरी बनार्इ भूमिका
में लिखा है देख लीजिये इत्यादि प्रकार सृष्टि के बनाने और बनने में हैं और यह
भी है कि सब से सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जाता उस का नाम परमाणु,
साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्व्णुक जो
स्थूल वायु है, तीन व्णुक का अग्नि, चार व्णुक का जल, पांच द्व्णुक
की पृथिवी अर्थात् तीन द्व्णुक का त्रासरेणु और उस का दूना होने से पृथिवी
आदि दृश्य पदार्थ होते है । इसी प्रकार क्रम से मिला कर भूगोलादि परमात्मा ने
बनाये है ।   लेखक-         आर्य्याभूषण

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