शनिवार, 7 जून 2014

उपनिषदों का महत्व

उपनिषदों का महत्व
मनुष्य सांसारिक दुःखों से सन्तप्त होकर सृष्टि के आदिकाल से

परमशान्ति तथा शाश्वत सुख की खोज करता रहा है । सांसारिक भोगों

के सुख क्षणिक तथा नश्वर होते हैं । उनमें शाश्वत-सुखों की आशा

करना मरु-मरीचिकाओं में जल समझने के समान ही है । सांसारिक

भोगों को भोगते-भोगते मानव समस्त जीवन बिता देता है । किन्तु परम

सुख प्राप्त नहीं होता । महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः ।। (भर्तृहरि॰ )

अर्थात् भोग भोगे नहीं जा सकते । हमें ही भोग खा जाते हैं ।

अर्थात् जीवन समाप्त हो जाता है कि भोग-कामनाओं की तृप्ति नहीं

होती । मनु जी के शब्दों में भोगों को भोगने से

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। (मनु॰ )

कभी भी वासनाओं की शान्ति नहीं होती । प्रत्युत कामनाओं की

वैसी ही वृद्धि होती है । जैसे घृतादि से अग्नि प्रचण्ड हो जाती है ।

धन-धान्यादि से सम्पन्न देश इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि उन देशों

में भौतिक सुखों की न्यूनता न होते हुए भी सुख व शान्ति कहा! ?

उपनिषत्कार ने ठीक ही कहा है कि

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः । (कठोप॰२.२७ )

अर्थात् मनुष्य सांसारिक धनों या पदाथो से कभी तृप्त नहीं हो

सकता । समस्त वैदिक दर्शनों का भी यही लक्ष्य रहा है कि शाश्वत-सुख

(मोक्ष) कैसे उपलब्ध हो सके । संसार की प्राचीनतम पुस्तक र्इश्वरीय

ज्ञान वेदों में मोक्ष-प्राप्ति या परम सुख का उपाय शुद्धान्तः करण करके

धर्मानुष्ठान करते हुए परब्रह्म का जानना ही है । वेद में कहा है

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेsयनाय ।

(यजु॰३१.१८ )

यस्य छायाsमृतं यस्य मृत्युः । (यजु॰२५.१३ )

अर्थात् परब्रह्म को जानकर ही मृत्यु दुःखों से पार होकर मोक्ष को

प्राप्त किया जा सकता है । इससे भिन्न और कोर्इ उपाय नहीं है । क्योंकि

उस परमब्रह्म का आश्रय (शरण) अमृत= मोक्ष सुखप्रद है और जिसकी

अकृपा या उपासना न करना ही मृत्यु दुःखों का कारण है । उस परब्रह्म

को जानने व प्राप्त करने के लिए ऋषि-मुनियों ने जीवन भर तपस्यारत

होके जो ज्ञान (ब्रह्म-ज्ञान ) प्राप्त किया है । उसी का संग्रह उपनिषद

ग्रन्थों में है । इसलिए इन्हें ब्रह्मज्ञान की उत्कृष्टतम पुस्तकें भी माना

जाता है ।

‘उपनिषद्’ शब्द का यौगिकार्थ भी इसी बात की पुष्टि करता है।

इस शब्द में ‘उप’ तथा ‘नि’ दो उपसर्ग तथा ‘षद्लृ’ धातु है । जिसका

अर्थ यह है’उप सामीप्येन नितरां सीदन्ति प्राप्नुवन्ति परं ब्रह्म यया

विद्यया सा उपनिषद् ।’ अर्थात् उपनिषद् वह विद्या है । जिसके द्वारा

परब्रह्म का ज्ञान होने से परब्रह्म के सामीप्य को प्राप्त किया जा सके ।

और उपनिषत=परब्रह्म-ज्ञान का प्रतिपादन करने से ‘र्इशादि’ ग्रन्थों का

नाम भी उपनिषद् प्रसिद्ध हुआ । श्री शंकराचार्य जी ने उपनिषत् की

व्याख्या करते हुए लिखा है
‘सेयं ब्रह्मविद्या उपनिषद् वाच्या

संसारस्यात्यन्तावसादनात् उपपूर्वस्य सदेस्तदर्थत्वात् ग्रन्थोsप्युपनिषद्

उच्यते ।, (बृहदान भूमिका)
अर्थात् यह उपनिषद् नामक ब्रह्मविद्या

संसार के अत्यन्त अवसादन =उच्छेद करने के लिए है । उपपूर्वक सद्

धातु का ऐसा अर्थ होने से । किन्तु यह सत्य नहीं है । उपनिषत् से

दुखोच्छेद होता है । संसारोच्छेद नहीं । यह-विद्या अत्यन्त गूढ़ होने से

‘रहस्य’ नाम से भी जानी जाती है । व्याकरण महाभाष्य में महर्षि

पतन्जलि ने उपनिषत् को ‘रहस्य’ नाम देकर लिखा है

चत्वारो वेदाः सागः सरहस्या बहुधा भिन्नाः ।

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